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________________ उनके द्वारा उनकी जाति का ग्रहण कर लेना चाहिए।' 'सव्वे बेइंदिया, सव्वे तेइंदिया, सव्वे चउरिदिया, सव्वे पंचिदिया'--ये व्याख्या के शब्द आगे चलकर मूल पाठ बन गए। इसलिए टीकाकार ने उन्हें मूल मानकर उनकी व्याख्या की है। इसी प्रकार महाव्रतों के सूत्र-पाठ में भी कुछ सम्मिश्रण होने का उल्लेख मिलता है।' (४) व्याख्या का पाठ रूप में परिवर्तन उत्तराध्ययन २२।२४ में 'पंचमुट्ठीहि' ऐसा पाठ आया है। वास्तव में यह पाठ 'पंचट्टा' था । 'अट्टा' का अर्थ है 'मुष्टि' । पंच अट्टा अर्थात् पंचमुष्टि । पंचट्ठा शब्द अपरिचित था। बृहद्वृत्ति (पत्र ४९२) में पंचट्ठा का अर्थ पंचमुष्टि है । कालान्तर में यह व्याख्यागत अर्थ ही मूल पाठ बन गया । अन्य आगमों में भी ऐसे अनेक उदाहरण हमें प्राप्त हए हैं। दशवकालिकः प्रति-परिचय (क) दशवकालिक पाठ और अवचूरी (हस्तलिखित) यह प्रति हमारे 'संघीय संग्रहालय' लाडनूं की है । इसके पत्र १७ व पृष्ठ ३४ हैं। प्रत्येक पत्र लगभग १०१ इंच लम्बा व ४३ इन्च चौड़ा है। प्रत्येक पृष्ठ में पाठ की पंक्तियां १२-१३ व प्रत्येक पंक्ति में ४६ से ५३ तक अक्षर हैं । अवचूरी पाठ के चारों तरफ लिखी हुई है । प्रति काली स्याही से व गाथाओं की संख्या लाल स्याही से लिखी हुई है । प्रति के अन्त में लेखक की निम्नलिखित प्रशस्ति (पुष्पिका) है : ॥१० दशवकालिक समाप्तमिति ।ब। संवत् १५०३ वर्षे आषाढ़ मासे कृष्ण पक्षे चतुर्थी दिने शनिवारे ।। दशवैलिखितं ।। सुन्दरसंवेगगणि योग्यं ।। (ख) दशवकालिक पाठ और अवचूरी (हस्तलिखित) ____ यह प्रति भी हमारे ‘संघीय संग्रहालय' लाडनूं की है। इसके पत्र १६ व पृष्ठ ३८ हैं। प्रत्येक पत्र लगभग १०१ इंच लम्बा व ४३ इंच चौड़ा है। प्रत्येक पृष्ठ में पाठ की पंक्तियां १३ व प्रत्येक १. अगस्त्यचूणि, पृष्ठ ७७ : कीडवयणेण तज्जातीयगहणमिति सव्वे बेइंदिया घेप्पंति । पयंगगहणेण चरिदिया। कंथ पिवीलियाभिहाणेण तिदिया। २. हारिभद्रीयटीका, पत्र १४२ : ये च कीटपतङ्गा इत्यत्र कीटा- कृमयः, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण' मिति द्वीन्द्रियाः शङ्कादयोऽपि गृह्यन्ते, पतङ्गा-शलभा, अत्रापि पूर्ववच्चतुरिन्द्रिया""सर्व एव गृह्यन्ते, अत एवाहसर्वे द्वीन्द्रियाः-कृम्यादयः, सर्वे श्रीन्द्रिया:--कुन्थ्वादयः, सर्वे चतुरिन्द्रिया:-पतङ्गादयः ।... सर्वे पञ्चेन्द्रियाः सामान्यतः । ३. अगस्त्यचूणि, पृष्ठ ८१: केति सुत्तमियं पढन्ति, केति वृत्तिगतं विसेसिति, जहा से तं पाणातिवाते चउविहे तं जहा दव्वतो, खेत्ततो, कालतो, भावतो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003556
Book TitleNavsuttani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2000
Total Pages1316
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size29 MB
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