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________________ ३३ यह वृत्ति न बहुत विस्तृत है और न अति संक्षिप्त । इसके मध्यम आकार में विवेचनीय स्थल अधिकांशतया व्याख्यात हैं।' प्रस्तुत सूत्र में वाचनान्तरों की बहुलता है। वत्तिकार ने प्रथम सूत्र की व्याख्या में लिखा है-इस सूत्र में बहुत वाचनाभेद है। जो बुद्धिगम्य होगा उसकी मैं व्याख्या करुंगा।' सम्भवत: इतने वाचनान्तर किसी अन्य सूत्र में प्राप्त नहीं हैं। यदि वृत्तिकार ने इनका संकलन नही किया होता तो ये लुप्त हो जाते। ___वृत्ति के अन्त में त्रिश्लोकी प्रशस्ति है। उसमें वृत्तिकार ने अपने गुरु श्री जिनेश्वरसूरि, चन्द्रकुल तथा रचनास्थल-अणहिलपाटकनगर और वृत्ति के संशोधक द्रोणाचार्य का उल्लेख किया है चन्द्रकुल-विपुल-भूतल-गुगप्रवर-वर्धमानकल्पतरोः । कुसुमोपमस्य सूरेः, गुणसौरभ-भरित-भवनस्य ॥१।। निस्सम्बन्धविहारस्य सर्वदा श्रीजिनेश्वराह्वस्य । शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणेयं कृता वृत्तिः।।२।। अणहिलपाटकनगरे श्रीमद्रोणाख्यसूरिमुख्येन। पण्डितगुणेन गुणवत्प्रियेण संशोधिता चेयम् ।।३।। इसका दूसरा व्याख्या-ग्रन्थ स्तबक है । यह विक्रम की अठारहवीं शती का है। इसके कर्ता संभवतः धर्मसी मुनि हैं। २. रायपसेणियं नाम बोध प्रस्तुत सूत्र का नाम 'रायपसेणियं' है। पं० बेचरदास दोशी ने प्रस्तुत सूत्र का नाम 'रायपसेणइयं' रखा है। उन्होंने सिद्धसेनगणी द्वारा उल्लिखित 'राजप्रसेनकीय' और मुनि चन्द्रसूरि द्वारा उल्लिखित 'राजप्रसेनजित' को इसका आधार माना है। प्रस्तुत सूत्र का सर्वाधिक प्राचीन उल्लेख नंदी सूत्र में मिलता है। वहां इसका नाम 'रायपसेणिय' है। नंदी की चूणि और उसकी हरिभद्रसूरि तथा आचार्य मलयगिरि कृत वृत्तियों में इसकी व्याख्या नहीं है। आचार्य मलयगिरि ने प्रस्तुत सूत्र के विवरण में 'राजप्रश्नीय' नाम का उल्लेख किया है। राजा प्रदेशी ने केशीस्वामी से प्रश्न पूछे थे। प्रस्तुत सूत्र में उनका वर्णन है। अतः इसका नाम 'राजप्रश्नीय' है। १. औपपातिक, वृत्ति, पृ० २ : इह च बहवो वाचनाभेदा दृश्यन्ते, तेषु च यमेवावभोत्स्यामहे तमेव व्याख्यास्यामः। २. रायपसेण इयं, प्रवेशक, पृ० ६,७ । ३. नंदी, सू० ७७ । ४. (क) रायपसेणिय वृत्ति, पृ० १: अथ कस्माद् इदमुपाङ्ग राजप्रश्नीयाभिधानमिति ? उच्यते, इह प्रदेशिनामा राजा भगवतः केशिकुमारश्रमणस्य समीपे यान् जीवविषयान् प्रश्नानकार्षीत्, यानि च तस्मै केशिकुमारश्रमणो गणभृत् व्याकरणानि व्याकृतवान् । (ख) रायपसेणिय वृत्ति, पृ० २ राजप्रश्नेषु भवं राजप्रश्नीयम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003554
Book TitleUvangsuttani Part 04 - Ovayiam Raipaseniyam Jivajivabhigame
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1987
Total Pages854
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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