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३. जो ध्रुव - शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित होता है, सुदीर्घकालीन होता है - वही श्रुत अंग-प्रविष्ट होता है' ।
इसके विपरीत।
१. जो स्थविर-कृत होता है,
२. जो प्रश्न पूछे बिना तीर्थंकर द्वारा प्रतिपादित होता है,
३. जो चल होता है, तात्कालिक या सामयिक होता है— उस श्रुत का नाम अंग बाह्य है ।
अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य में भेद करने का मुख्य हेतु वक्ता का भेद है'। जिस आगम के वक्ता भगवान् महावीर हैं और जिसके संकलयिता गणधर हैं, वह श्रुत-पुरुष के मूल अंगों के रूप में स्वीकृत होता है इसलिए उसे अंग-प्रविष्ट कहा गया है । सर्वार्थसिद्धि के अनुसार वक्ता तीन प्रकार के होते हैं - १. तीर्थंकर २ त केवली (चतुर्दश-पूर्वी) और ३. आरातीय' आरातीय आचार्यों के द्वारा रचित आगम ही अंग बाह्य माने गए हैं। आचार्य अकलंक के शब्दों में आरातीय आचार्य कृत आगम अंग-प्रतिपादित अर्थ से प्रतिबिम्बित होते हैं इसीलिए वे अंग बाह्य कहलाते हैं । अंग बाह्य आगम श्रुत-पुरुष के प्रत्यंग या उपांग-स्थानीय है।
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४. अंग
द्वादशागी में संगर्भित बारह आगमों को अंग कहा गया है । अंग शब्द संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं के साहित्य में प्राप्त होता है। वैदिक साहित्य में वेदाध्ययन के सहायक ग्रन्थों को अंग कहा गया है। उनकी संख्या छह है
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१. शिक्षा-शब्दों के उच्चारण-विधान का प्रतिपादक ग्रन्थ ।
२. कल्पवेद विहित कर्मों का क्रमपूर्वक व्यवस्थित प्रतिपादन करने बलाघा
३. व्याकरण-पद-स्वरूप और पदार्थ निश्चय का निमित्त शास्त्र ।
४. निरुक्त-पदों की व्युत्पत्ति का निरूपण करने वाला शास्त्र ।
५. छन्द मन्त्रोच्चारण के लिए स्वर-विज्ञान का प्रतिपादक शास्त्र ।
६. ज्योतिष --- यज्ञ-याग आदि कार्यों के लिए समय-शुद्धि का प्रतिपादक शास्त्र ।
१. विशेषावश्यकभाष्य गाथा ५५२
गणहर-थेरकथं वा, आएसा मुक्क- वागरणश्रो वा ।
धुव चल विसेसो वा अंगाणंगेसु नाणत्तं ॥
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२. स्वार्थभाष्य १२०
वक्तु - विशेषाद् द्वैविध्यम् ।
३. सर्वार्थसिद्धि, १२० :
नयो वक्तारः - सर्वज्ञस्तीर्थंकरः, इतरो वा श्रुतकेवली आरातीयश्चेति ।
४. तत्वार्थ राजवार्तिक, १२० :
आरातीयाचार्यकृतांगाचं प्रत्यासन्नरूपमंगबाह्यम्
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