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________________ भगवान् पार्श्व के साढ़े तीन सौ चतुर्दशपूर्वी मुनि थे । भगवान् महावीर के तीन सौ चतुर्दशपूर्वी मुनि थे । ३१ यह समवायांग और अनुयोगद्वार में अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य का विभाग नहीं है । सर्व प्रथम विभाग नन्दी में मिलता है । अंग बाह्य की रचना अर्वाचीन स्थविरों ने की है। नंदी की रचना से पूर्व अनेक अंग बाह्य ग्रन्थ रचे जा चुके थे और वे चतुर्दश-पूर्वी या दस-पूर्वी स्थविरों द्वारा रचे गये थे । इस लिए उन्हें आगम की कोटि में रखा गया। उसके फलस्वरूप आगम के दो विभाग किए गए - - अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य । यह विभाग अनुयोगद्वार (वीर - निर्वाण छठी शताब्दी) तक नहीं हुआ था । यह सबसे पहले नंदी (वीर- निर्वाण दसवीं शताब्दी) में हुआ है । नंदी की रचना तक आगम के तीन वर्गीकरण हो जाते हैं -- पूर्व, अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य । आज 'अंग - प्रविष्ट' और 'अंग बाह्य' उपलब्ध होते हैं, किन्तु पूर्व उपलब्ध नहीं हैं। उनकी अनुपलब्धि ऐतिहासिक दृष्टि से विमर्शनीय है । २. पूर्व जैन परम्परा के अनुसार श्रुत ज्ञान ( शब्द- ज्ञान ) का अक्षयकोष 'पूर्व' है। इसके अर्थ और रचना के विषय में सब एक मत नहीं हैं। प्राचीन आचार्यों के मतानुसार 'पूर्व' द्वादशांगी से पहले रचे गए थे, इसलिए इनका नाम 'पूर्व' रखा गया' । आधुनिक विद्वानों का अभिमत यह है कि 'पूर्व' भगवान् पार्श्व की परम्परा की श्रुत राशि है । यह भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती है, इसलिए इसे 'पूर्व ' कहा गया है। दोनों अभिमतों में से किसी को भी मान्य किया जाए, किन्तु इस फलित में कोई अन्तर नहीं आता कि पूर्वो की रचना द्वादशांगी से पहले हुई थी या द्वादशांगी पूर्वो की उत्तरकालीन रचना है । वर्तमान में जो द्वादशांगी का रूप प्राप्त है, उसमें 'पूर्व' समाए हुए हैं । बारहवां अंग दृष्टिवाद है । उसका एक विभाग है -- पूर्वगत | चौदह पूर्व इसी 'पूर्वगत' के अन्तर्गत हैं । भगवान् महावीर ने प्रारंभ में पूर्वगत श्रुत की रचना की थी। इस अभिमत से यह फलित होता है कि चौदह पूर्व और बारहवां अंग - ये दोनों भिन्न नहीं हैं । पूर्वगत श्रुत बहुत गहन था । सर्वसाधारण के लिए वह १. समवाओ, पइण्णगसमवाओ, सू० १४ । २. वही, सू० १२ । ३. समवायांग वृत्ति, पत्र १०१ । प्रथनं पूर्वं तस्य सर्व प्रवचनात् पूर्वं क्रियमाणत्वात् । ४. नन्दी, मलयगिरि वृत्ति, पत्र २४० : अन्ये तु व्याचक्षते पूर्वं पूर्वंगत सूत्रार्थमर्हन् भाषते, गणधरा अपि पूर्व पूर्वगतसूत्रं विरचयन्ति, षश्चादाचारा दिकम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003551
Book TitleAngsuttani Part 01 - Ayaro Suyagao Thanam Samavao
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages1108
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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