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________________ १४ हिंसाविवेग-पद १४०. से बेमि - अप्पेगे अच्चाए वहति अप्पे अजिणाए वहंति, ' अप्पेगे मंसाए वहति अप्पेगे सोणियाए वहति अप्पेगे हिययाए वहंति अप्पेगे पित्ताए वहंति अप्पे वसाए वहंति अप्पेगे पिच्छाए वहति अप्पेगे पुच्छाए वहति, अप्पे बालाए वहंति अप्पेगे सिंगाए वहंति अप्पेगे विसाणाए वहति, अप्पे दंताए वहति अप्पे दाढाए वहति अप्पेगे नहाए वहति अप्पेगे हारुणीए वहंति अप्पे अट्ठीए वहंति अप्पेगे अट्ठिमिजाए वहति अप्पे अट्ठाए वहति, अप्पेगे अणट्टाए ° वहति अप्पेगे 'हिंसिसु मेत्ति वा" वहति अप्पेगे हिंसंति मेत्ति वा वहति अप्पे हिंसिस्संति मेत्ति वा वहति ॥ o १४१. एत्थ सत्यं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति ॥ १४२. एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति ॥ १४३ तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं तसकाय सत्थं समारंभेज्जा, ठेवण्णेहिं तसकाय - सत्थं समारंभावेज्जा, ठेवण्णे तसकाय - सत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा ॥ १४४. जस्सेते तसकाय - सत्थ-समारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णाय कम्मे । -त्ति बेमि ॥ आयारो सत्तम उद्देस Jain Education International अत्ततुला-पदं १४५. ' पहू एजस्स" दुगंछणाए ॥ १४६. आयंकदंसी अहियं ति नच्चा ॥ १४७. जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ । जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ || १४८. एयं तुलमसि ॥ १४६. इह संतिगया दविया, णावकंखति वीजिउं ॥ वाकार्याहिंसा-पदं १५० लज्जमाणा' पुढो पास ॥ १. हणंति (च) ; वर्धति ( क ); हिंसंति (घ ) । २. सं० पा० एवं हिययाए पित्ताए वसाए पिच्छा पुच्छाए बालाए सिंगाए विसाणाए दाढा नहाए हारुणीए अट्टीए अट्टि - fare अट्टाए अट्ठाए । ३. हितयाए ( क च ) 1 ४. हिंसिसु इति वा ( ख, ग ) । ५. पहू य एगस्स (वृ); पभु एयस्स ( क ) । ६. इति ( चुपा ) । ७. जीवियं (क, छ); जीविउं ( ख, ग, घ, च, वृ); मूलपाठ: चूर्याधारेण स्वीकृतोस्ति । 'दसवे आलिय' सूत्रस्य ( ६ । ३७) श्लोकेनास्य पुष्टिर्जायते । ८. अट्टा परिजुण्णा आकंपिता जाव आतुरा परितात्रिता धुवगंडिया (चू) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003551
Book TitleAngsuttani Part 01 - Ayaro Suyagao Thanam Samavao
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1975
Total Pages1108
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size17 MB
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