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________________ [नन्दीसूत्र परम्परसिद्ध केवलज्ञान 43 –से कि तं परम्परसिद्ध-केवलनाणं? परम्परसिद्ध-केवलनाणं अगविहं पण्णतं, तंजहा-अपढमसमय-सिद्धा, दुसमय-सिद्धा, तिसमय सिद्धा, चउसमयसिद्धा, जाव दससमयसिद्धा, संखिज्जसमयसिद्धा, असंखिज्जसमयसिद्धा, अणतसमयसिद्धा। से तं परम्परसिद्ध-केवलनाणं, से तं सिद्ध केवलनाणं। तं समासयो चउन्विहं पग्णत्तं, तंजहा--दव्वग्रो, खित्तमो, कालओ, भावनो। तत्थ दव्वनो णं केवलनाणो सवदवाई जाणइ, पासइ / खित्तनो णं केवलनाणी सव्वं खित्तं जाणइ, पासइ / कालो णं केवलनाणी सव्वं कालं जाणइ, पासइ। भावनो णं केवलनाणी सब्वे भावे जाणइ, पासइ / प्रश्न-वह परम्परसिद्ध-केवलज्ञान कितने प्रकार का है ? उत्तर--परम्परसिद्ध-केवलज्ञान अनेक प्रकार से प्ररूपित है / यथा---अप्रथमसमयसिद्ध, द्विसमय सिद्ध, त्रिसमयसिद्ध, चतुःसमयसिद्ध, यावत दससमयसिद्ध, संख्यातसमयसिद्ध, असंख्यातसमयसिद्ध और अनन्तसमय सिद्ध / इस प्रकार परम्परसिद्ध केवलज्ञान का वर्णन है / तात्पर्य यह है कि परम्परसिद्धों के सूत्रोक्त भेदों के अनुरूप ही उनके केवलज्ञान के भेद हैं। संक्षेप में वह चार प्रकार का है-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से / (1) द्रव्य से केवलज्ञानी सर्वद्रव्यों को जानता व देखता है / (2) क्षेत्र से केवलज्ञानी सर्व लोकालोक क्षेत्र को जानता-देखता है / (3) काल से केवलज्ञानी भूत, वर्तमान और भविष्यत् तीनों कालों को जानता व देखता है / (4) भाव से केवलज्ञानी सर्व द्रव्यों के सर्व भावों-पर्यायों को जानता व देखता है। विवेचन--सूत्रकार ने परम्परसिद्ध-केवलज्ञान का वर्णन किया / वस्तुत: केवलज्ञान और सिद्धों के स्वरूप में किसी प्रकार को भिन्नता या तरतमता नहीं है / सिद्धों में जो भेद कहा गया है वह पूर्वोपाधि या काल आदि के भेद से ही है / केवलज्ञान में मात्र स्वामी के भेद से भेद है। केवलज्ञान और केवलदर्शन के उपयोग के विषय में प्राचार्यों की विभिन्न धारणाएँ हैं, जिनका उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है। जैनदर्शन पाँच ज्ञान, तीन अज्ञान और चार दर्शन, इस प्रकार बारह प्रकार का उपयोग मानता है / इनमें से किसी एक में कुछ समय के लिए स्थिर हो जाने को उपयोग कहते हैं। केवलज्ञान और केवलदर्शन के सिवाय दस उपयोग छद्मस्थ में पाए जाते हैं। मिथ्यादष्टि में तीन अज्ञान और तीन दर्शन अर्थात् छः उपयोग और छद्मस्थ सम्यगदष्टि में चार ज्ञान तथा तीन दर्शन, इस प्रकार सात उपयोग हो सकते हैं / केवलज्ञान और केवल दर्शन, ये दो उपयोग अनावृत आयिक एवं सम्पूर्ण हैं / शेप दस उपयोग क्षायोपशमिक छाद्मस्थिक—प्रावृतानावृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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