SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 62 [नन्दीसूत्र परम्परसिद्ध केवलज्ञान जिनको सिद्ध हुए एक समय से अधिक अथवा अनन्त समय हो गए हैं वे परम्परसिद्ध कहलाते हैं। उनका द्रव्यप्रमाण सात द्वारों में तथा 15 उपद्वारों में अनन्त कहना चाहिए क्योंकि ये अन्तरहित हैं, काल अनन्त है / सर्वक्षेत्रों से अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं। अनन्तरसिद्ध-केवलज्ञान ४६-से किं तं प्रणतरसिद्ध केवलनाणं ? अणंतरसिद्ध केवलनाणं पण्णरसविहं पण्णत्तं, तं जहा(१) तित्थसिद्धा (2) अतित्थसिद्धा (3) तित्थयरसिद्धा (4) अतित्थयरसिद्धा (5) सयंबुद्धसिद्धा (6) पत्तेयबुद्धसिद्धा (7) बुद्धबोहियसिद्धा (8) इथिलिंगसिद्धा (6) पुरिलिगसिद्धा (10) नपुसलिगसिद्धा (11) सलिंगसिद्धा (12) अन्नलिंगसिद्धा (13) गिहिलिंगसिद्धा (14) एगसिद्धा (15) प्रणेगसिद्धा, से तं प्रणंतरसिद्ध केवलनाणं / प्रश्न- अनन्तरसिद्ध-केवलज्ञान कितने प्रकार का है ? उत्तर- अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान 15 प्रकार से वर्णित है / यथा (1) तीर्थसिद्ध (2) अतीर्थसिद्ध (3) तीर्थंकरसिद्ध (4) अतीर्थंकरसिद्ध (5) स्वयंबुद्ध सिद्ध (6) प्रत्येकबुद्धसिद्ध (7) बुद्धबोधितसिद्ध (8) स्त्रीलिंगसिद्ध (9) पुरुषलिंगसिद्ध (10) नपुंसकलिंगसिद्ध (11) स्वलिंगसिद्ध (12) अन्यलिंगसिद्ध (13) गृहिलिगसिद्ध (14) एकसिद्ध (15) अनेकसिद्ध / विवेचनप्रस्तुत सूत्र में अनन्तरसिद्ध केवलज्ञान के संबंध में विवेचन किया गया है / जिन आत्माओं को सिद्ध हुए एक ही समय हुआ हो, उन्हें अनन्तरसिद्ध कहते हैं और उनका ज्ञान अनन्तरसिद्धकेवलज्ञान कहलाता है। अनन्तरसिद्ध केवलज्ञानो भवोपाधि भेद से 15 प्रकार के हैं। यथा (1) तीर्थसिद्ध-जिसके द्वारा संसार तरा जाए उसे तोर्थ कहते हैं / चतुर्विध श्रीसंघ का नाम तीर्थ है / तीर्थ की स्थापना होने पर जो सिद्ध हों, उन्हें तोर्थसिद्ध कहते हैं / तोर्थ की स्थापना तीर्थंकर करते हैं। (2) अतीर्थसिद्ध तीर्थ की स्थापना होने से पहले अथवा तीर्थ के व्यवच्छेद हो जाने के पश्चात् जो जीव सिद्धगति प्राप्त करते हैं वे अतीर्थसिद्ध कहलाते हैं। जैसे माता मरुदेवी ने तीर्थ की स्थापना से पूर्व सिद्धगति पाई / भगवान् सुविधिनाथजी से लेकर शांतिनाथ भगवान् के शासन तक बीच के सात अन्तरों में तीर्थ का विच्छेद होता रहा / उस समय जातिस्मरण आदि ज्ञान से जो अन्तकृत केवलो हुए उन्हें भी अतीर्थसिद्ध कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy