________________ 48] [ नन्दीसूत्र विवेचन-इस सूत्र में गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है कि--भगवन् ! अगर संयत को ही मन:पर्यवज्ञान उत्पन्न होता है तो संयत भी प्रमत्त एवं अप्रमत्त के भेद से दो प्रकार के होते हैं / इनमें से कौन इस ज्ञान का अधिकारी है ? भगवान् ने उत्तर दिया-अप्रमत्त संयत ही इस ज्ञान का अधिकारी है। अप्रमत्तसंयत-जो सातवें आदि गुणस्थानों में पहुंचा हुआ हो, जो निद्रा आदि प्रमादों से प्रतीत हो चुका हो, जिसके परिणाम संयम में वृद्धिंगत हो रहे हों ऐसे मुनि को अप्रमत्तसंयत कहते हैं। प्रमत्तसंयत-जो संज्वलन कषाय, निद्रा, विकथा आदि प्रमाद में प्रवर्तते हैं उन्हें प्रमत्तसंयत कहते हैं / ऐसे मुनि मनःपर्यवज्ञान के अधिकारी नहीं होते। 36- जइ अप्पमत्तसंजय-सम्मद्दिदि-पज्जत्तग-संखेज्ज-वासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, कि इढिपत्त-अप्पमत्तसंजय-सम्मद्दिट्ठि-पज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवतियमणुस्साणं, अणि ढिपत्त-अप्पमत्तसंजय-सम्माद्दिट्ठि-पज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कतियमणस्साणं? गोयमा! इढिपत्त-अप्पमत्तसंजय-सम्मद्दिटिपज्जत्तग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं, जो अणिढिप्पत्त-अप्पमत्तसंजय-सम्मद्दिट्ठि-पज्जतग-संखेज्जवासाउय-कम्मभूमग-गम्भवक्कंतियमणस्साणं मणपज्जवणाणं-समध्यज्जह। ३६--प्रश्न-यदि अप्रमत्तसंयत सम्यगदष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले, कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है तो क्या ऋद्धिप्राप्त-लब्धिधारी अप्रमत्तसंयत ट पर्याप्त संख्यात वर्षाय-कर्मभमिज-गर्भज मनुष्यों को होता है अथवा लब्धिरहित अप्रमत्त संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को होता है ? उत्तर- गौतम ! ऋद्धिप्राप्त अप्रमादी सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात की वर्ष आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को मनःपर्यवज्ञान की प्राप्ति होती है / ऋद्धिरहित अप्रमादी सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुवाले कर्मभूमि में पैदा हुए गर्भज मनुष्यों को मन:पर्यवज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। विवेचन-ऋद्धिप्राप्त—जो अप्रमत्त प्रात्मार्थी मुनि अतिशायिनी बुद्धि से सम्पन्न हों तथा अवधिज्ञान, पूर्वगतज्ञान. ग्राहारकलब्धि, वैक्रियलब्धि, तेजोलेश्या, विद्याचारण, जंघाचारण आदि अनेक लब्धियों में से किन्हीं लब्धियों से युक्त हों, उन्हें ऋद्धिप्राप्त कहते हैं। कुछ लब्धियाँ प्रौदयिक भाव में, कुछ क्षायोपशमिक भाव में और कुछ क्षायिक भाव में होती हैं। ऐसी विशिष्ट लब्धियां संयम एवं तप रूपी कष्टसाध्य साधना से प्राप्त होतो हैं। विशिष्ट लब्धि प्राप्त एवं ऋद्धि-सम्पन्न मुनि को ही मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न होता है। अनद्धिप्राप्त-अप्रमत्त होने पर भी जिन संयतों को कोई विशिष्ट लब्धियाँ प्राप्त नहीं होती उन्हें अनुद्धिप्राप्त अप्रमत्त संयत कहते हैं / ये मनःपर्यवज्ञान के अधिकारी नहीं होते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org