________________ ज्ञान के पांच प्रकार [27 अनन्तवां भाग ज्ञान प्रकट रहता है। इसके अतिरिक्त इन दोनों ज्ञानों के होने पर ही शेष ज्ञान होते हैं / अतएव इन दोनों का सर्वप्रथम निर्देश किया गया है। दोनों में भी पहले मतिज्ञान के उल्लेख का कारण यह है कि श्रु तज्ञान, मतिज्ञानपूर्वक ही होता है। मतिज्ञान-श्रुतज्ञान के पश्चात् अवधिज्ञान का निर्देश करने का हेतु यह है कि इन दोनों के साथ अवधिज्ञान को कई बातों में समानता है। यथा-जैसे मिथ्यात्व के उदय से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान मिथ्यारूप में परिणत होते हैं, वैसे ही अवधिज्ञान भी मिथ्यारूप में परिणत हो जाता है। इसके अतिरिक्त कभी-कभी, जब कोई विभंगज्ञानी, सम्यग्दृष्टि होता है तब तीनों ज्ञान एक ही साथ उत्पन्न होते हैं, अर्थात् सम्यक् रूप में परिणत होते हैं / जैसे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की लब्धि की अपेक्षा छयासठ सागरोपम से किंचित् अधिक स्थिति है, अवधिज्ञान की भी इतनी ही स्थिति है। इन समानताओं के कारण मति-श्रु त के अनन्तर अवधिज्ञान का निर्देश किया गया है। अवधिज्ञान के पश्चात् मनःपर्यवज्ञान का निर्देश इस कारण किया गया है कि दोनों में प्रत्यक्षत्व की समानता है / जैसे अवधिज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष है, विकल है तथा क्षयोपशमजन्य है, उसी प्रकार मनःपर्यवज्ञान भी है। केवलज्ञान सबके अन्त में प्राप्त होता है, अतएव उसका निर्देश अन्त में किया गया है। प्रत्यक्ष के भेद ३-से कि तं पच्चक्खं ? पच्चक्खं दुविहं पण्णत्तं, तं जहा-इंदियपच्चक्खं च णोइंदियपच्चक्खं च / ३--प्रश्न----प्रत्यक्ष ज्ञान क्या है ? उत्तर-प्रत्यक्षज्ञान के दो भेद हैं, यथा(१) इन्द्रिय-प्रत्यक्ष और (2) नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष / विवेचन इन्द्रिय आत्मा की वैभाविक परिणति है / इन्द्रिय के भी दो भेद हैं(१) द्रव्येन्द्रिय (2) भावेन्द्रिय / द्रव्येन्द्रिय के भी दो प्रकार होते हैं :-(1) निर्वत्ति द्रव्येन्द्रिय और (2) उपकरण द्रव्येन्द्रिय / निर्वत्ति का अर्थ है-रचना, जो बाह्य और आभ्यंतर के भेद से दो प्रकार की है। बाह्य निर्वत्ति इन्द्रियों के आकार में पुद्गलों की रचना है तथा आभ्यंतर निर्वृत्ति से इन्द्रियों के आकार में आत्मप्रदेशों का संस्थान / उपकरण का अर्थ है-—सहायक या साधन / बाह्य और आभ्यंतर निर्वृत्ति की शक्ति-विशेष को उपकरणेन्द्रिय कहते हैं। सारांश यह है कि इन्द्रिय को प्राकृति निवृत्ति है तथा उनकी विशिष्ट पौद्गलिक शक्ति को उपकरण कहते हैं। सर्व जीवों की द्रव्येन्द्रियों की बाह्य आकृतियों में भिन्नता पाई जाती है किन्तु प्राभ्यन्तर निर्वृत्ति-इन्द्रिय सभी जीवों की समान होती है। प्रज्ञापनासूत्र के पन्द्रहवें पद में कहा गया है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org