________________ 20 [नन्दीसूत्र कुछ समय पश्चात् वही देव फिर परीक्षा लेने आ गया और अश्वशाला में से श्रीकृष्ण के एक उत्तम अश्व को लेकर भाग गया। सैनिकों के पीछा करने पर भी वह हाथ नहीं आया / अन्त में श्रीकृष्ण स्वयं घोड़ा छुड़ाने के लिए गये। तब अपहरणकर्ता देवता ने कहा—'आप मेरे साथ युद्ध करके ही अश्व ले जा सकते हैं।' श्रीकृष्ण ने कहा-'युद्ध कई प्रकार के होते हैं, मल्लयुद्ध, मुष्ठि-युद्ध दृष्टि-युद्ध आदि / तुम कौन-सा युद्ध करना चाहते हो ?' उसने कहा-'मैं पीठयुद्ध करना चाहता हूं। आपकी भी पीठ हो और मेरी भी पीठ हो / ' __ उत्तर में श्रीकृष्ण ने कहा---'ऐसा घृणित व नीच युद्ध करना मेरे गौरव के विरुद्ध है, भले तू अश्व ले जा।' यह सुनकर देव हर्षान्वित होकर अपने असली रूप में वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर, श्रीकृष्ण के चरणों में नतमस्तक हो गया। इसने इन्द्र द्वारा की गई प्रशंसा को स्वीकार किया। वरदानस्वरूप देव ने एक दिव्य भेरी भेंट में दी। उसने कहा-इसे छह-छह महीने बाद बजाने से इसमें से सजल मेघ जैसी ध्वनि उत्पन्न होगी। जो भी इसकी ध्वनि को सुनेगा उसे छह महीने तक रोग नहीं होगा / उसका पूर्वोत्पन्न रोग नष्ट हो जायगा। इसकी ध्वनि बारह योजन तक सुनाई देगी।' यह कहकर देव स्वस्थान को चला गया। कुछ समय पश्चात् ही द्वारका में रोग फैला और भेरी बजाई गई। जहां तक उसकी अावाज पहुंची वहां तक के सभी रोगी स्वस्थ हो गए। श्रीकृष्ण ने भेरी अपने विश्वासपात्र सेवक को सौंप दी और सारी विधि समझा दी। एक बार एक धनाढय गंभीर रोग से पीडित होकर और कृष्णजी की भेरी की महिमा सुनकर द्वारका प्राया। दुर्भाग्य से उसके द्वारका पहुंचने से एक दिन पूर्व ही भेरीवादन हो चुका था। वह सोच-विचार में पड़ गया-भेरी छह महीने बाद बजेगी और तब तक मेरे प्राण-पखेरू उड़ जायेंगे / सोचते-सोचते अचानक उसे सूझा-'यदि भेरी की ध्वनि सुनने से रोग नष्ट हो सकता है तो उसके एक टुकड़े को घिस कर पीने से भी रोग नष्ट हो सकता है।' आखिर उसने भेरीवादक को रिश्वत देकर एक टुकड़ा प्राप्त कर लिया। उसे घिस कर पीने से वह नीरोग हो गया / मगर भेरी-वादक को रिश्वत लेने का चस्का लग गया। दूसरों को भी वह भेरी काट-काट कर टुकड़े देने लगा। काटे हुए टुकड़ों के स्थान पर वह दूसरे टुकड़े जोड़ देता था / परिणाम यह हुया कि वह दिव्य भेरी गरीब की गुदड़ी बन गई / उसका रोगशमन का सामर्थ्य भी नष्ट हो गया। बारह योजन तक-सम्पूर्ण द्वारका में उसकी ध्वनि भी सुनाई न देती। श्रीकृष्ण को जब सारा रहस्य ज्ञात हुआ तो कृष्णजी ने भेरीवादक को दण्डित किया तथा जनहित की दृष्टि से तेला करके पुनः देव से भेरी प्राप्त की और विश्वस्त सेवक को दी / यथाज्ञा छह महीने बाद ही भेरी के बजने से जनता लाभान्वित होने लगी। इस दृष्टान्त का भावार्थ इस प्रकार है--आर्य क्षेत्र रूप द्वारका नगरी है, तीर्थंकर रूप कृष्ण वासुदेव हैं, पुण्य रूप देव हैं / भेरी तुल्य जिनवाणी है। भेरीवादक के रूप में साधु और कर्म रूप रोग है। इसी प्रकार जो श्रोता या शिष्य आचार्य द्वारा प्रदत्त सूत्रार्थ को छिपाते हैं या उसे बदलते हैं, मिथ्या प्ररूपणा करते हैं, वे अनन्त संसारी होते हैं / किन्तु जो जिन वचनानुसार आचरण करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org