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________________ श्रुतज्ञान] [199 मूलपढमाणुरोगे णं अरहताणं भगवंताणं पुवभवा, देवगमणाई, पाउं, चवणाई, जम्मणाणि, अभिसेप्रा, रायवरसिरीयो, पन्वज्जायो, तवा य उग्गा, केवलनाणुप्पामो, तित्थपवत्तणाणि अ, सीसा, गणा, गणहरा, अज्जा, पवत्तिणीओ, संघस्स चउन्विहस्स जं च परिमाणं, जिण-मणपज्जव-रोहिनाणी, सम्मत्तसुप्रनाणिणो अ, वाई, अणुत्तरगई अ, उत्तरवेउविणो अमुणिणो, जत्तिया सिद्धा, सिद्धिपहो देसियो, जच्चिरं च कालं पाओवगया, जे जहि जत्तिआई भत्ताइं छेइत्ता अंतगडे, मुणिवस्त्तमे तिमिरोधविष्पमुक्के, मुषखसुहमणुत्तरं च पत्ते / एवमन्ते प्र एवमाइभावा मूलपढमाणुप्रोगे कहिपा। से तं मूलपढमाणुनोगे। १०७-प्रश्न-भगवन् ! अनुयोग कितने प्रकार का है ? उत्तर--वह दो प्रकार का है, यथा-मूलप्रथमानुयोग और गण्डिकानुयोग / मूलप्रथमानुयोग में क्या वर्णन है ? मूलप्रथमानुयोग में अरिहन्त भगवन्तों के पूर्व भवों का वर्णन, देवलोक में जाना, देवलोक का आयुष्य, देवलोक से च्यवनकर तीर्थकर रूप में जन्म, देवादिकृत जन्माभिषेक, तथा राज्याभिषेक, प्रधान राज्यलक्ष्मी, प्रव्रज्या(मुनि-दीक्षा) तत्पश्चात् घोर तपश्चर्या, केवलज्ञान की उत्पत्ति, तीर्थ की प्रवृत्ति करना, शिष्य-समुदाय, गण, गणधर, आयिकाएँ, प्रवत्तिनीएँ, चतुर्विध संघ का परिमाण-संख्या, जिनसामान्यकेवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी एवं सम्यक तज्ञानी, वादी, अनत्तरगति और उत्तरवैक्रियधारी मुनि यावन्मात्र मुनि सिद्ध हुए, मोक्ष-मार्ग जैसे दिखाया, जितने समय तक पादपोपगमन संथारा किया, जिस स्थान पर जितने भक्तों का छेदन किया, अज्ञान अंधकार के प्रवाह से मुक्त होकर जो महामुनि मोक्ष के प्रधान सुख को प्राप्त हुए इत्यादि / इनके अतिरिक्त अन्य भाव भी मूल प्रथमानुयोग में प्रतिपादित किये गए हैं / यह मूल प्रथमानुयोग का विषय हुआ। विवेचन-उक्त सूत्र में अनुयोग का वर्णन किया गया है। जो योग अनुरूप अथवा अनुकूल हो वह अनुयोग कहलाता है / जो सूत्र के साथ अनुरूप सम्बन्ध रखता है, वह अनुयोग है / अनुयोग के दो प्रकार हैं-मूलप्रथमानुयोग और मंडिकानुयोग / मूलप्रथमानुयोग में तीर्थंकरों के विषय में विस्तृत रूप से निरूपण किया गया है / सम्यक्त्व प्राप्ति से लेकर तीर्थकर पद की प्राप्ति तक उनके भवों का तथा जीवनचर्या का वर्णन किया गया है। पूर्वभव, देवत्वप्राप्ति, देवलोक की आयु, वहाँ से च्यवन, जन्म, राज्यश्री, दीक्षा, उग्रतप, कैवल्यप्राप्ति, तीर्थप्रवर्तन, शिष्यों, गणधरों, गणों, प्रार्याओं, प्रवत्तिनियों तथा चतुर्विध संघ का परिमाण, केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, पूर्वधर, वादी, अनुत्तर विमानगति को प्राप्त, उत्तरवैक्रियधारी मुनि तथा कितने सिद्ध हुए, आदि का वर्णन किया गया है / मोक्ष-सुख की प्राप्ति और उसके साधन भी बताए हैं / उक्त विषयों को देखते हुए स्पष्ट है कि तीर्थंकरों के जीवनचरित मूल प्रथमानुयोग में वर्णित हैं। १०८-से कि तं गंडिप्राणुप्रोगे ? गंडिप्राणुनोगे-कुलगरगंडिआनो, तित्थयरगंडिसाम्रो, चक्कवट्टिगंडियापो, दसारगंडियानो, बलदेवगंडिनाओ, वासुदेवगंडियानो, गणधरगंडियापो, भद्दबाहुगंडियाओं, तवोकम्मगंडिग्रानो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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