________________ श्रुतज्ञान] [177 (1) प्रथम अध्ययन में 'एगे पाया' आत्मा एक है, इसी प्रकार अन्य एक-एक प्रकार के पदार्थों का वर्णन किया गया है। (2) दूसरे अध्ययन में दो-दो पदार्थों का वर्णन है / यथा-जीव और अजीव, पुण्य और पाप, धर्म और अधर्म, अादि / (3) तीसरे अध्ययन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र का निरूपण है। तीन प्रकार के पुरुष-उत्तम, मध्यम और जघन्य तथा श्रुतधर्म, चारित्रधर्म और अस्तिकायधर्म, इस प्रकार तीन प्रकार के धर्म आदि बताए गये हैं। (4) चौथे अध्ययन में चातुर्याम धर्म आदि तथा सात सौ चतुर्भङ्गियों का वर्णन है। (2) पांचवें में पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच गति, तथा पाँच इन्द्रिय इत्यादि का वर्णन है। (6) छठे स्थान में छह काय, छह लेश्याएँ, गणी के छह गुण, षड्द्रव्य तथा छह पारे आदि के विषय में निरूपण है। (7) सातवें स्थान में सर्वज्ञ के और अल्पज्ञों के सात-सात लक्षण, सप्त स्वरों के लक्षण, सात प्रकार का विभंग ज्ञान, आदि अनेकों पदार्थों का वर्णन है। (8) पाठवें स्थान में आठ विभक्तियों का विवरण, पाठ अवश्य पालनीय शिक्षाएँ तथा अष्ट संख्यक और भी अनेकों शिक्षाओं के साथ एकलविहारी के अनिवार्य आठ गुणों का वर्णन है। (6) नवें स्थान में ब्रह्मचर्य की नव बाड़ें तथा भगवान महावीर के शासन में जिन नौ व्यक्तियों ने तीर्थंकर नाम गोत्र बाँधा है और अनागत काल की उत्सपिणी में तीर्थकर बनने वाले हैं, उनके विषय में बताया गया है। इनके अतिरिक्त नौ-नौ संख्यक और भी अनेक हेय, ज्ञेय एवं उपादेय शिक्षाएँ वर्णित हैं। (10) दसवें स्थान में दस चित्तसमाधि, दस स्वप्नों का फल, दस प्रकार का सत्य, दस प्रकार का हो असत्य ; दस प्रकार की मिश्र भाषा, दस प्रकार का श्रमणधर्म तथा वे दस स्थान जिन्हें अल्पज्ञ नहीं जानते हैं, आदि दस संख्यक अनेकों विषयों का वर्णन किया गया है / इस प्रकार इस सूत्र में नाना प्रकार के विषयों का संग्रह है / दूसरे शब्दों में इसे भिन्न-भिन्न विषयों का कोष भी कहा जा सकता है / जिज्ञासु पाठकों के लिए यह अङ्ग अवश्यमेव पठनीय है / (4) श्री समवायाङ्ग सूत्र ८६-से कि तं समवाए? समवाए णं जीवा समासिज्जंति, अजीवा समासिज्जति जीवाजीवा समासिज्जति, ससमए समासिज्जइ, परसमए समासिज्जइ, ससमय-परसमए समासिज्जइ, लोए समासिज्जइ, अलोए समासिज्जइ, लोपालोए समासिज्जइ। समवाए णं इगाइमाणं एगुत्तरिमाण ठाण-सय-विवडिआणं मावाणं परूवणा प्राविज्जइ, दुवालसविहस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समासिज्जइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org