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________________ 176] नन्दीसूत्र ठाणे णं टंका, कुडा, सेला, सिहरिणो, पब्भारा, कुण्डाई, गुहाओ, आगरा, दहा, नईमो, प्राविति / ठाणे णं परित्ता वायणा, संखज्जा अणुप्रोगदारा, संखेज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखेज्जानो निज्जुत्तोपो, संखेज्जानो संगहणीप्रो, संखेज्जायो पडिवत्तीयो। ___ से णं अंगट्ठायाए तइए अंगे, एगे सुप्रखंधे, दस अज्झयणा, एगवोस उद्दसणकाला, एक्कवीसं समुह सणकाला, बावत्तरिपयसहस्सा पयगेणं, संखज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अजंता थावरा, सासय-कड-निबद्ध-निकाइया जिणपण्णत्ता भावा प्राविज्जति पण्णविज्जति परूविज्जंति, दंसिज्जंति. निदंसिज्जंति, उवदंसिज्जंति / से एवं आया, एवं नाया, एवं विण्णाया, एवं चरण-करण-परूवणा आघविज्जइ / से तंठाणे। / / सूत्र 48 / / ८५--प्रश्न--- भगवन् ! स्थानाङ्गश्रुत क्या है ? उत्तर-स्थानांग में अथवा स्थानाङ्ग के द्वारा जोव स्थापित किए जाते हैं, अजीव स्थापित किए जाते हैं और जीवाजीव को स्थापना की जाती है। स्वसमय-जैन सिद्धांत की स्थापना की जाती है, परसमय-जैनेतर सिद्धान्तों की स्थापना को जाती है एवं जैन व जैनेतर, उभय पक्षों की स्थापना की जाती है / लोक, अलोक और लोकालोक को स्थापना की जाती है / स्थान में या स्थानाङ्ग के द्वारा टङ्क-छिन्नतट पर्वत, कूट, पर्वत, शिखर वाले पर्वत, कूट के ऊपर कुब्जाग्र की भांति अथवा पर्वत के ऊपर हस्तिकुम्भ को प्राकृति सदृश्य कुब्ज, गङ्गाकुण्ड ग्रादि कण्ड, पौण्डरीक प्रादि हद-तालाब, गङ्गा आदि नदियों का कथन किया जाता है। स्थानाङ्ग में एक से लेकर दस तक वृद्धि करते हुए भावों को प्ररूपणा की गई है। स्थानांग सूत्र में परिमित वाचनाएं, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढ-छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात नियुक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियाँ हैं / वह अङ्गार्थ से तृतीय अङ्ग है। इसमें एक श्रुतस्कंध और दस अध्ययन हैं तथा इक्कीस उद्देशनकाल और इकोस ही समुद्देशनकाल हैं / पदों की संख्या बहत्तर हज़ार है / संख्यात अक्षर तथा अनन्त गम हैं / अनन्त पर्याय, परिमित-त्रस और अनन्त स्थावर हैं / शाश्वत-कृत-निबद्ध-निकाचित जिनकथित भाव कहे जाते हैं। उनका प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया गया है। स्थानाङ्ग का अध्ययन करनेवाला तदात्मरूप, ज्ञाता एवं विज्ञाता हो जाता है / इस प्रकार उक्त अङ्ग में चरण-करणानुयोग को प्ररूपणा की गई है। यह स्थानाङ्गसूत्र का वर्णन है। विवेचन-- इस सूत्र में एक से लेकर दस स्थानों के द्वारा जोवादि पदार्थ व्यवस्थापित किए गए हैं / संक्षेप में, जीवादि पदार्थों का वर्णन किया गया है / यह अंग दस अध्ययनों में बँटा हुआ है / सूत्रों की संख्या हज़ार से अधिक है / इसमें इक्कीस उद्देशक हैं / इस अंग की रचना पूर्वोक्त दो अङ्गों से भिन्न प्रकार की है। इसमें प्रत्येक अध्ययन में, जो 'स्थान' नाम से कहे गए हैं, अध्ययन (स्थान) की संख्या के अनुसार ही वस्तु संख्या बताई गई है / यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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