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________________ श्रुतज्ञान] [165 विवाह-चूलिका–भगवती सूत्र की चूलिका / वरुणोपपात-इस सूत्र का किसी मुनि द्वारा पाठ किए जाने पर वरुणदेव वहाँ उपस्थित होकर उस अध्ययन को सुनता है और प्रसन्न होकर मुनि से वरदान माँगने को कहता है। किन्तु मुनि के इन्कार कर देने पर उस निस्पृह एवं संतोषी मुनि को सविधि वंदन करके चला जाता है। यही इस सूत्र में वर्णित है। उत्थानश्र त-इसमें उच्चाटन का वर्णन है, किसी ग्राम में कोई मुनि कुपित होकर इस सूत्र का एक, दो या तीन बार पाठ करे तो ग्राम में उच्चाटन या अशांति हो जाती है। समुत्थानश्र त-इस सूत्र का पाठ करने पर अगर किसी गाँव में अशांति हो तो वहाँ शांति हो जाती है। नागपरिज्ञापनिका-इस सूत्र के विधिपूर्वक अध्ययन करने से स्वस्थान पर स्थित नागकुमार देव श्रमण को वन्दना करते हुए वरद हो जाते हैं / कल्पिका-कल्पावतंसिका-इनमें सौधर्मादि कल्प-देवलोक में विशेष तप से उत्पन्न होने वाले देव-देवियों का वर्णन है। पुष्पिता-पुष्पचूला-इनमें विमानवासियों के वर्तमान एवं पारभाविक जीवन का वर्णन किया गया है। वृष्णिदशा--इसमें अन्धकवृष्णि के कुल में उत्पन्न हुए दस जीवों से सम्बन्धित धर्मचर्या, गति, संथारा तथा सिद्धत्व प्राप्त करने का उल्लेख है / इसके दस अध्ययन हैं। प्रकीर्णक-अर्हत द्वारा उपदिष्ट व त के आधार पर मुनि जिन ग्रन्थों की रचना करते हैं उन्हें प्रकीर्णक कहते हैं। भगवान् ऋषभदेव से लेकर महावीर तक असंख्य श्रमण हुए हैं और उन्होंने अपने ज्ञान के विकास, कर्म-निर्जरा तथा अन्य प्राणियों के बोध-हेतु अपनी योग्यता एवं श्रु त के अनुसार अपरिमित ग्रन्थों की रचना की है। सारांश यह है कि तीर्थ में असीम प्रकीर्णक होते हैं / अङ्गप्रविष्टश्रु त ८२-से कि तं अंगपविट्ठ ? अंगपविट्ठ दुवालसविहं पण्णत्तं, तं जहा (1) प्रायारो (2) सूयगडो (3) ठाणं (4) समवायो (5) विवाहपन्नत्ती (6) नायाधम्मकहानो (7) उवासगदसायो (8) अंतगडदसाप्रो (8) अणुत्तरोववाइअदसायो (10) पहावागरणाइं (11) विवागसुअं (12) दिट्टिवायो। // सूत्र० 45 // ८२–अङ्गप्रविष्टश्रुत कितने प्रकार का है ? अङ्गप्रविष्टश्र त बारह प्रकार का है (1) आचारांगसूत्र (2) सूत्रकृताङ्गसूत्र (3) स्थानाङ्गसूत्र (4) समवायाङ्गसूत्र (5) व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवती सूत्र (6) ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्र (7) उपासकदशाङ्गसूत्र (8) अन्तकृद्दशाङ्गसूत्र (9) अनुत्तररौपपातिकदशाङ्गसूत्र (10) प्रश्नव्याकरणसूत्र (11) विपाकसूत्र (12) दृष्टिवादाङ्गसूत्र। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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