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________________ मतिज्ञान [141 (6) अक्षिप्र-क्षयोपशम की मंदता से या विक्षिप्त उपयोग से किसी भी इन्द्रिय या मन के विषय को अनभ्यस्त अवस्था में कुछ विलम्ब से जानना / (7) अनिश्रित-बिना ही किसी हेत के, बिना किसी निमित्त के वस्तु की पर्याय और गुण को जानना / व्यक्ति के मस्तिष्क में कोई ऐसी सूझबूझ पैदा होना जबकि वही बात किसी शास्त्र या पुस्तक में भी लिखी मिल जाय / (8) निश्रित-किसी हेतु, युक्ति, निमित्त, लिंग आदि के द्वारा जानना / जैसे-एक व्यक्ति ने शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को उपयोग की एकाग्रता से अचानक चन्द्र-दर्शन कर लिया और दूसरे ने किसी और है पर अर्थात बाह्य निमित्त से चन्द्र-दर्शन किया। इनमें से पहला पहली कोटि में और दूसरा दूसरी कोटि में गभित हो जाता है। (6) असंदिग्ध-किसी व्यक्ति ने जिस पर्याय को भी जाना, उसे संदेह रहित होकर जाना। जैसे-'यह संतरे का रस है, यह गुलाब का फूल है अथवा आने वाला व्यक्ति मेरा भाई है।' (10) संदिग्ध-किसी वस्तु को संदिग्ध रूप से जानना / जैसे, कुछ अंधेरे में यह ठूठ है या पुरुष ? यह धुपा है या बादल ? यह पीतल है या सोना ? इस प्रकार संदेह बना रहना / (11) ध्र व-इन्द्रिय और मन को सही निमित्त मिलने पर विषय को नियम से जानना। किसी मशीन का कोई पुर्जा खराब हो तो उस विषय का विशेषज्ञ आकर खराब पुर्जे को अवश्यमेव पहचान लेगा / अपने विषय का गुण-दोष जान लेना उसके लिये अवश्यंभावी है। (12) अध्र व–निमित्त मिलने पर भी कभी ज्ञान हो जाता है और कभी नहीं, कभी वह चिरकाल तक रहनेवाला होता है, कभी नहीं / स्मरण रखना चाहिये कि बहु-बहुविध, क्षिप्र, अनिश्रित, असंदिग्ध और ध्र व इनमें विशेष क्षयोपशम, उपयोग की एकाग्रता एवं अभ्यस्तता कारण हैं तथा अल्प, अल्पविध, अक्षिप्र, निश्रित, संदिग्ध और अध्रव ज्ञानों में क्षयोपशम को मन्दता, उपयोग की विक्षिप्तता, अनभ्यस्तता आदि कारण होते हैं। किसी के चक्षुरिन्द्रिय की प्रबलता होती है तो वह किसी भी वस्तु को, शत्रु-मित्रादि को दूर से ही स्पष्ट देख लेता है। किसी के श्रोत्रेन्द्रिय की प्रबलता हो तो वह मन्दतम शब्द को भी आसानी से सुन लेता है। घ्राणेन्द्रिय जिसकी तीव्र हो, वह परोक्ष में रही हुई वस्तु को भी गंध के सहारे पहचान लेता है, जिस प्रकार अनेक कुत्ते वायु में रहो हुई मन्दतम गंध से ही चोर-डाकुओं को पकड़वा देते हैं। मिट्टी को सूघकर ही भूगर्भवेत्ता धातुओं को खाने खोज लेते हैं / चींटी आदि अनेक कीड़े-मकोड़े अपनी तीव्र घ्राणेन्द्रिय के द्वारा दूर रहे हुए खाद्य पदार्थों को ढूँढ लेते हैं। सूधकर ही असली-नकली पदार्थों की पहचान की जाती है / व्यक्ति जिह्वा के द्वारा चखकर खाद्य-पदार्थों का मूल्यांकन करता है तथा उसमें रहे हुए गुण-दोषों को पहचान लेता है / नेत्र-हीन व्यक्ति लिखे हुए अक्षरों को अपनी तीव्र स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा स्पर्श करते हुए पढ़कर सुना देते हैं / इसी प्रकार नोइन्द्रिय अर्थात् मन की तीव्र शक्ति होने पर व्यक्ति प्रबल चिन्तन-मनन से भविष्य में घटने वाली घटनाओं के शुभाशुभ परिणाम को ज्ञात कर लेते हैं / ये सब ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय कर्मों के विशिष्ट क्षयोपशम के अद्भुत फल हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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