________________ मतिज्ञान] [139 जैसे- अज्ञात नामवाला कोई व्यक्ति अव्यक्त अथवा अस्पष्ट रूप को देखे, उसने यह कोई 'रूप है' इस प्रकार ग्रहण किया, परन्तु वह यह नहीं जान पाया कि 'यह क्या-किसका रूप है ?" तब वह ईहा में प्रविष्ट होता है तथा छानबीन करके यह 'अमुक रूप है' इस प्रकार जानता है। तत्पश्चात् अवाय में प्रविष्ट होकर उपगत हो जाता है, फिर धारणा में प्रवेश करके उसे संख्यात काल अथवा असंख्यात तक धारणा कर रखता है। __ जैसे—अज्ञातनामा कोई पुरुष अव्यक्त गंध को तुंचता है, उसने यह 'कोई गंध है' इस प्रकार ग्रहण किया, किन्तु वह यह नहीं जानता कि 'यह क्या-किस प्रकार की गंध है ?' तदनन्तर ईहा में प्रवेश करके जानता है कि 'यह अमुक गंध है। फिर अवाय में प्रवेश करके गंध से उपगत हो जाता है। तत्पश्चात् धारणा करके उसे संख्यात व असंख्यात काल तक धारण किये रहता है। जैसे-कोई व्यक्ति किसी रस का आस्वादन करता है। वह 'यह रस को ग्रहण करता है किन्तु यह नहीं जानता कि 'यह क्या-कौन सा रस है' ? तब ईहा में प्रवेश करके वह जान लेता है कि 'यह अमुक प्रकार का रस है।' तत्पश्चात् अवाय में प्रवेश करता है / तब उसे उपगत हो जाता है। तदनन्तर धारणा करके संख्यात एवं असंख्यात काल तक धारण किये रहता है। जैसे-कोई परुष अव्यक्त स्पर्श को स्पर्श करता है, उसने 'यह कोई स्पर्श है' इस प्रकार ग्रहण किया किन्तु 'यह नहीं जाना कि 'यह स्पर्श क्या-किस प्रकार का है ?' तब ईहा में प्रवेश करता है और जानता है कि 'यह अमुक का स्पर्श है। तत्पश्चात् अवाय में प्रवेश करके वह उपगत होता है। फिर धारणा में प्रवेश करने के बाद संख्यात अथवा असंख्यात काल पर्यन्त धारण किये रहता है। जैसे--कोई पुरुष अव्यक्त स्वप्न को देखे, उसने 'यह स्वप्न है' इस प्रकार ग्रहण किया, परन्तु वह यह नहीं जानता कि 'यह क्या-कैसा स्वप्न है ?' तब ईहा में प्रवेश करके जानता है कि 'यह अमुक स्वप्न है। उसके बाद अवाय में प्रवेश करके उपगत होता है / तत्पश्चात् वह धारणा में प्रवेश करके संख्यात या असंख्यात काल तक धारण करता है / इस प्रकार मल्लक के दृष्टांत से अवग्रह का स्वरूप हुआ। विवेचन-उल्लिखित सूत्र में अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा का उदाहरणों सहित विस्तृत वर्णन किया गया है। जैसे कि जागृत अवस्था में किसी व्यक्ति ने कोई अव्यक्त शब्द सुना किंतु उसे यह ज्ञात नहीं हुआ कि यह शब्द किसका है ? जीव अथवा अजीव का है ? अथवा किस व्यक्ति का है? ईहा में प्रवेश करने के बाद वह जानता है कि यह शब्द अमुक व्यक्ति का होना चाहिये, क्योंकि वह अन्वय व्यतिरेक से ऊहापोह करके निर्णय के उन्मुख होता है। फिर अवाय में वह निश्चय करता है कि यह शब्द अमुक व्यक्ति का ही है। इसके पश्चात् निश्चय किये हुए शब्द को धारणा द्वारा संख्यातकाल या असंख्यात काल तक धारण किये रहता है / ध्यान में रखना चाहिये कि चक्षुरिन्द्रिय का अर्थावग्रह होता है, व्यंजनावग्रह नहीं / शेष सब वर्णन पूर्ववत् समझना चाहिये। नोइन्द्रिय का अर्थ मन है। उसे स्पष्ट करने के लिये सूत्रकार ने स्वप्न का उदाहरण दिया है। स्वप्न में द्रव्य इन्द्रियाँ कार्य नहीं करती, भावेन्द्रियाँ और मन ही काम करते हैं। व्यक्ति जो स्वप्न में सुनता है, देखता है, सूघता है, चखता है, छूता है और चिन्तन-मनन करता है, इन सभी में मुख्यता मन की होती है। जागृत होने पर वह स्वप्न में देखे, हुए दृश्यों को अथवा कही-सुनी बात को अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा तक ले पाता है। कोई ज्ञान अवग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org