________________ मतिज्ञान] [137 गुरु ने उत्तर दिया-जिस प्रकार कोई व्यक्ति आपाकशीर्ष अर्थात् कुम्हार के बर्तन पकाने के स्थान को, जिसे 'आवा' कहते हैं, उससे एक सिकोरा अर्थात् प्याला लेकर उसमें पानी की एक बूंद डाले, उसके नष्ट हो जाने पर दुसरी, फिर तीसरी, इसी प्रकार कई बूदें नष्ट हो जाने पर भी निरन्तर डालता रहे तो पानो की कोई बूद ऐसी होगी जो उस प्याले को गीला करेगी। तत्पश्चात् कोई बूंद उसमें ठहरेगी और किसी बूंद से प्याला भर जाएगा और भरने पर किसी बूद से पानी बाहर गिरने लगेगा। इसी प्रकार वह व्यंजन अनन्त पुद्गलों से क्रमश: पूरित होता है अर्थात् जब शब्द के पुद्गल द्रव्य श्रोत्र में जाकर परिणत हो जाते हैं, तब वह पुरुष हुंकार करता है, किन्तु यह नहीं जानता कि यह किस व्यक्ति का शब्द है ? तत्पश्चात् वह ईहा में प्रवेश करता है और तब जानता है कि यह अमुक व्यक्ति का शब्द है / तत्पश्चात् अवाय में प्रवेश करता है, तब वह उपगत होता है अर्थात् शब्द का ज्ञान हो जाता है / इसके बाद धारणा में प्रवेश करता है और संख्यात अथवा असंख्यातकाल पर्यंत धारण किये रहता है। विवेचन -सूत्रकार ने उक्त विषय को स्पष्ट करने के लिये तथा प्रतिबोधक के दृष्टान्त की पुष्टि के लिए एक और व्यावहारिक उदाहरण देकर समझाया है: किसी व्यक्ति ने कुम्हार के आवे से मिट्टी का पका हुआ एक कोरा प्याला लिया। उस प्याले में उसने जल को एक बूंद डाली / वह तुरन्त उस प्याले में समा गई / व्यक्ति ने तब दूसरी, तीसरी और इसी प्रकार अनेक बूंदें डालीं किन्तु वे सभी प्याले में समाती चली गईं और प्याला सू-सू शब्द करता रहा / किन्तु निरन्तर बूदें डालते जाने से प्याला गीला हो गया और उसमें गिरने वाली बूंदें ठहरने लगीं। धीरे-धीरे प्याला बूंदों के पानी से भर गया और उसके बाद जल को जो बूदें उसमें गिरी वे बाहर निकलने लगीं। इस उदाहरण से व्यंजनावग्रह का रहस्य समझ में आ सकता है। यथा एक सुषुप्त व्यक्ति की श्रोत्रेन्द्रिय में क्षयोपशम की मंदता या अनभ्यस्त दशा में अथवा अनुपयुक्त अवस्था में समय-समय में जब शब्द-पुद्गल टकराते रहते हैं, तब असंख्यात समयों में उसे कुछ अव्यक्त ज्ञान होता है / वही व्यंजनावग्रह कहलाता है / तात्पर्य यह है कि जब श्रोत्रेन्द्रिय शब्दपुद्गलों से परिव्याप्त हो जाती है, तभी वह सोया हुआ व्यक्ति हुँ' शब्द का उच्चारण करता है / उस समय सोये हुए व्यक्ति को यह ज्ञात नहीं होता कि यह शब्द क्या है ? किसका है ? उस समय वह जाति-स्वरूप, द्रव्य-गुण इत्यादि विशेष कल्पना से रहित सामान्य मात्र को ही ग्रहण कर पाता है / हुंकार करने से पहले व्यंजनावग्रह होता है / हुंकार भी विना शब्द-पुद्गलों के टकराए नहीं निकलता और कभी-कभी तो हुंकार करने पर भी उसे यह भान नहीं हो पाता कि मैंने हुंकार किया है। किन्तु बार-बार संबोधित करने से जब निद्रा कुछ भंग हो जाती है और अंगड़ाई लेते समय भी जब शब्द पुद्गल टकराते हैं, तब तक भी अवग्रह ही रहता है। तत्पश्चात् जब व्यक्ति यह जिज्ञासा करने लगता है कि यह शब्द किसका है ? मुझे किसने पुकारा है, कौन मुझे जगा रहा है ? तब वह ईहा में प्रवेश कर जाता है / ग्रहण किये हुए शब्द को छानबीन करने के बाद जब वह निश्चय की कोटि में पहुँचकर निर्णय कर लेता है कि--यह शब्द अमुक का है और अमुक मुझे संबोधित करके जगा रहा है, तब अवाय होता है। इसके पश्चात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org