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________________ 136) [नन्दीसूत्र और न ही संख्यात समय में, अपितु असंख्यात समयों में प्रविष्ट हुए शब्द पुद्गल ग्रहण करने में आते हैं।" इस तरह यह प्रतिबोधक के दष्टान्त से व्यंजन अवग्रह का स्वरूप वणित किया गया। विवेचन-सूत्रकार ने व्यंजनावग्रह को समझाने के लिये प्रतिबोधक का दृष्टान्त देकर विषय को स्पष्ट किया है / जैसे--कोई व्यक्ति, प्रगाढ निद्रा-लीन किसी पुरुष को संबोधित करता है-"पो भाई ! अरे ओ भाई !!" ऐसे प्रसंग को ध्यान में लाकर शिष्य ने पूछा- "भगवन् ! क्या एक समय के प्रविष्ट हुए शब्द-पुद्गल श्रोत्र के द्वारा अवगत हो सकते हैं ?" गुरु ने कहा- नहीं। तब शिष्य ने पुनः प्रश्न किया-"भगवन् ! तब क्या दो समय, दस समय या संख्यात यावत् असंख्यात समय में प्रविष्ट हुए शब्द पुद्गलों को वह ग्रहण करता है ?" गुरु ने समझाया--"वत्स ! एक समय से लेकर संख्यात समयों में प्रविष्ट हुए शब्द-पुद्गलों को भी वह सुप्त पुरुष ग्रहण-जान नहीं सकता, अपितु असंख्यात समय तक के प्रविष्ट हुए शब्दपुद्गल ही अवगत होते हैं।" वस्तुतः एक बार आँखों की पलकें झपकने जितने काल में असंख्यात समय लग जाते हैं। हाँ, इस बात को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए कि एक से लेकर संख्यात समयपर्यन्त श्रोत्र में जो शब्द-पुद्गल प्रविष्ट होते हैं, वे सब अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान के जनक होते हैं / कहा भी है—"जं वंजणोग्गहणमिति भणियं विण्णाणं अव्वत्तमिति / " उक्त कथन से स्पष्ट हो जाता है कि असंख्यात समय के प्रविष्ट शब्द-पुद्गल ही ज्ञान के उत्पादक होते हैं / ___ व्यंजनावग्रह का कालमान जघन्य प्रावलिका के असंख्येय भागमात्र है और उत्कृष्ट संख्येय पावलिका प्रमाण होता है, वह भी 'पृथक्त्व' (दो से लेकर नो तक की संख्या) 'श्वासोच्छ्वास' प्रमाण जानना चाहिये। सूत्र में शिष्य के लिये 'चोयग' शब्द आया है उसका अर्थ है---प्रेरक / वह उत्तर के लिए प्रेरक है / प्रज्ञापक पद गुरु का वाचक है / वह सूत्र और अर्थ की प्ररूपणा करने के कारण प्रज्ञापक कहलाता है। मल्लक के दृष्टान्त से व्यंजनावग्रह ६३-से कि तं मल्लाढतेणं ? से जहानामए केइ पुरिसे आवागसीसानो मल्लगं गहाय तत्थेगं उदबिदुपखेविज्जा, से न8, अण्णेऽवि पक्खित्ते सेऽवि नट्ठ, एवं पक्खिप्पमाणेसु पक्खिप्पमाणेसु होही से उदबिंदू जे णं तं मल्लगं रावेहिइत्ति, होही से उदबिटू जे तंसि मल्लगंसि ठाहिति, होही से उदबिंदू जे णं तं मल्लगं भरिहिति, होहो से उदबिंदू जेणं मल्लगं पवाहेहिति / एवामेव पक्खिप्पमाणेहि पक्खिप्पमाणेहि अणन्तेहि पुग्गलेहिं जाहे तं वंजणं पूरि होइ, ताहे 'है' ति करेइ, नो चेव णं जाणइ के वेस सद्दाइ ? तो ईहं पविसइ, तओ जाणइ प्रमुगे एस सद्दाइ, तो प्रवायं पविसइ, तपो से उवयं हवइ, तमो गं धारणं पविसइ, तो णं धारेइ संखिज्जं वा कालं, असंखिज्जं वा कालं / ६३---शिष्य के द्वारा प्रश्न किया गया---'मल्लक के दृष्टान्त से व्यंजनावग्रह का स्वरूप किस प्रकार है ?' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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