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________________ सम्पादकीय मौलिक लेखन की अपेक्षा भाषान्तर-अनुवाद करने का कार्य कुछ दुरूह होता है। भाषा दूसरी और भाव भी स्वान्तःसमुदभूत नहीं। उन भावों को भाषान्तर में बदलना और वह भी इस प्रकार कि अनुवाद की भाषा का प्रवाह अस्खलित रहे, उसकी मौलिकता को प्रांच न आए, सरल नहीं है। विशेषतः प्रागम के अनुवाद में तो और भी अधिक कठिनाई का अनुभव होता है / मूल आगम के तात्पर्य-अभिप्राय-आशय में किंचित् भी अन्यथापन न पा जाए, इस ओर पद-पद पर सावधानी बरतनी पड़ती है। इसके लिए पर्याप्त भाषाज्ञान और साथ ही पागम के प्राशय की विशद परिज्ञा अपेक्षित है। ___ जैनागमों की भाषा प्राकृत-अर्द्धमागधी है / नन्दीसूत्र का प्रणयन भी इसी भाषा में हुअा है। यह अागम जैनजगत में परम मांगलिक माना जाता है। अनेक साधक-साधिकाएँ प्रतिदिन इसका पाठ करते हैं / अतएव इसका अपेक्षाकृत अधिक प्रचलन है। इसके प्रणेता श्री देव बाचक हैं। ये देव वाचक कौन हैं ? जैन परम्परा में सुविख्यात देवधिगणि ही हैं या उनसे भिन्न ? इस विषय में इतिहासविद विद्वानों में मतभिन्नता है। पंन्यास श्रीकल्याणविजय जी म० दोनों को एक ही व्यक्ति स्वीकार करते हैं। अपने मत की पुष्टि के लिए उन्होंने अनेक प्रमाण भी उपस्थित किए हैं। किन्तु मुनि श्री पुण्य विजयजी ने अपने द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र की प्रस्तावना में पर्याप्त ऊहापोह के पश्चात् इस मान्यता को स्वीकार नहीं किया है। नन्दीसूत्र के प्रारम्भ में दी गई स्थविरावली के अन्तिम स्थविर श्रीमान दुष्यगणि के शिष्य देववाचक इस सूत्र के प्रणेता हैं, यह निर्विवाद है। नन्दी-चणि एवं श्रीहरिभद्र सूरि तथा श्रीमलयगिरि सरि की टीकात्रों के उल्लेख से यह प्रमाणित है। इतिहास मेरा विषय नहीं है। अतएव देववाचक और देवधिगणि क्षमाश्रमण की एकता या भिन्नता का निर्णय इतिहासवेत्ताओं को ही अधिक गवेषणा करके निश्चत करना है। अर्द्धमागधी भाषा और प्रागमों के प्राशय को निरन्तर के परिशीलन से हम यतकिञ्चित् जानते हैं, किन्तु साधिकार जानना और समझना अलग बात है। उसमें जो प्रौढ़ता चाहिए उसका मुझ में अभाव है। अपनी इस सीमित योग्यता को भली-भांति जानते हुए भी मैं नन्दीसूत्र के अनुवाद-कार्य में प्रवृत्त हुई, इसका मुख्य कारण परमश्रद्धय गुरुदेव श्रमणसंघ के युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी म. सा. की तथा मेरे विद्यागुरु श्रीयुत पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल की प्राग्रहपूर्ण प्रेरणा है। इसीसे प्रेरित होकर मैंने अनुवादक की भूमिका का निर्वाह मात्र किया है। मुझे कितनी सफलता मिली या नहीं मिली, इसका निर्णय मैं विद्वज्जनों पर छोड़ती हूँ। सर्वप्रथम पूज्य आचार्यश्री आत्मारामजी महाराज के प्रति सबिनय आभार प्रकट करना अपना परम कर्तब्य मानती हैं। प्राचार्यश्रीजी द्वारा सम्पादित एवं अन दित नन्दीसूत्र से मुझे इस अनुवाद में सबसे अधिक सहायता मिली है। इसका मैंने अपने अनुवाद में भरपूर उपयोग किया है। कहीं-कहीं विवेचन में कतिपय नवीन [15] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003499
Book TitleAgam 31 Chulika 01 Nandi Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMadhukarmuni, Kamla Jain, Shreechand Surana
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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