________________ मतिज्ञान ] [123 दृष्टि उन पर फैकी / उसका भी जब असर नहीं हुआ तो उसने तेजी से सरसराते हुए पाकर भगवान् के चरण के अंगूठे को जोर से डस लिया। पर डसने के बाद स्वयं हो यह देखकर घोर आश्चर्य में पड़ गया कि उसके विष का तो कोई प्रभाव हुमा नहीं उलटे अंगूठे से निकले हुए रक्त का स्वाद ही बड़ा मधुर और विलक्षण है! यह अनुभव करने के बाद उसे विचार प्राया-यह साधारण नहीं अपितु कोई विलक्षण और अलौकिक पुरुष है। बस, सर्प का क्रोध शान्त तो हुआ ही, उलटा वह बहुत भयभीत होकर दीन-दृष्टि से ध्यानस्थ भगवान् की ओर देखने लगा। तब महावीर प्रभु ने ध्यान खोला और अत्यन्त स्नेहपूर्ण दृष्टि से उसे संबोधित करते हुए कहा--"हे चण्डकौशिक ! बोध को प्राप्त करो तथा अपने पूर्व भव को स्मरण करो ! पूर्व जन्म में तुम साधु थे और एक शिष्य के गुरु भी। एक दिन तुम दोनों आहार लेकर लौट रहे थे, तब तुम्हारे पैर के नीचे एक मेंढक दबकर मर गया था। तुम्हारे शिष्य ने उसी समय तुमसे पालोचना करने के लिए कहा था किन्तु तुमने ध्यान नहीं दिया। शिष्य ने सोचा-'गुरुदेव स्वयं तपस्वी हैं, सायंकाल स्वयं आलोचना करेंगे।' किन्तु तुमने सायंकाल प्रतिक्रमण के समय भी आलोचना नहीं की तो सहज भाव से शिष्य ने आलोचना करने का स्मरण कराया / पर उसकी बात सुनते ही तुम क्रोध में पागल होकर शिष्य को मारने के लिए दौड़े परन्तु मध्य में स्थित एक खंभे से टकरा गये। तुम्हारा मस्तक स्तंभ से टकराकर फट गया और तुम मृत्यु को प्राप्त हए / भयंकर क्रोध करते समय मरने से तो तुम्हें यह सर्प-योनि मिली है और अब पुनः क्रोध के वशीभूत होकर अपना जन्म बिगाड़ रहे हो! चण्डकौशिक, अब स्वयं को सम्हालो, प्रतिबोध को प्राप्त करो।" ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से तथा भगवान् के उपदेश से चण्डकौशिक को जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उसने अपने पूर्वभव को जाना। अपने क्रोध व अपराध के लिए पश्चात्ताप करने लगा। उसी समय उसने भगवान को विनयपूर्वक वन्दना की तथा आजीवन अनशन कर लिया। साथ ही दृष्टिविष होने के कारण उसने अपना मुह बिल में डाल लिया, शरीर वाहर रहा / कुछ काल पश्चात् ग्वाले भगवान् की तलाश में उधर आए। उन्हें सकुशल वहाँ से रवाना होते देख वे महान् पाश्चर्य में पड़ गए। इधर जब उन्होंने चण्डकौशिक को बिल में मुह डालकर पड़ देखा तो उस पर पत्थर तथा लकड़ो आदि से प्रहार करने लगे। चण्डकौशिक सभी चोटों को समभाव से सहन करता रहा / उसने बिल से बाहर अपना मुह नहीं किया / जब अासपास के लोगों को इस बात का पता चला तो झड के झड बनाकर सब सर्प को देखने के लिए आने लगे / सर्प के शरीर पर पड़े घावों पर चींटियाँ और अन्य जीव इकट्ठे हो गये थे और उसके शरीर को उन सबने काट-काटकर चालनी के समान बना दिया था। पन्द्रह दिन तक चण्डकौशिक सर्प सब यातनाग्रों को शांति से सहता रहा / यहाँ तक कि उसने अपने शरीर को भी नहीं हिलाया, यह सोचकर कि मेरे हिलने से चीटियाँ अथवा अन्य छोटे-छोटे कोड़े-मकोड़े दबकर मर जाएँगे / पन्द्रह दिन पश्चात् अपने अनशन को पूरा कर वह मृत्यु को प्राप्त हुना तथा सहस्रार नामक आठवें देवलोक में उत्पन्न हुआ / यह उसकी पारिणामिकी बुद्धि थी। २०-गेंडा-एक व्यक्ति ने युवावस्था में श्रावक के व्रतों को धारण किया किन्तु उन्हें सम्यक प्रकार से पाल नहीं सका। कछ काल पश्चात वह रोगग्रस्त हो गया और अपने भंग किये हए व्रतों को पालोचना नहीं कर पाया / वैसी स्थिति में जब उसको मृत्यु हो गई तो धर्म से पतित होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org