________________ मतिज्ञान] [107 दौड़ो ! दौड़ो !! पकड़ो ! अभयकुमार मुझे जूते मारता हुया ले जा रहा है।" लोगों ने देखा, किन्तु प्रतिदिन की तरह अभयकुमार का मनोरंजक खेल समझकर हँसते रहे, कोई भी राजा को छुड़ाने नहीं आया / नगरी से बाहर आते ही अभयकुमार ने पवन-वेग से रथ को दौड़ाया तथा राजगृह आकर ही दम लिया। यथासमय दरबार में अपने पिता राजा श्रेणिक के समक्ष चंडप्रद्योतन को उपस्थित किया / चंडप्रद्योतन अभयकुमार के चातुर्य से मात खाकर अत्यन्त लज्जित हुआ। उसने श्रेणिक से क्षमायाचना की। राजा श्रेणिक ने चंडप्रद्योतन को उसी क्षण हृदय से लगाया तथा राजसी सम्मान प्रदान करते हुए उज्जयिनी पहुँचा दिया / राजगृह के निवासियों ने पारिणामिकी बुद्धि के अधिकारी अपने कुमार की मुक्त कंठ से सराहना की। (2) सेठ-एक सेठ की पत्नी चरित्रहीन थी। पत्नी के अनाचार से क्षुब्ध होकर उसने पुत्र पर घर की जिम्मेदारी डाल दी और स्वयं संयम ग्रहण कर साधु बन गया / इसके बाद हो संयोगवश जनता ने श्रेष्ठिपुत्र को वहाँ का राजा बना दिया। वह राज्य करने लगा / कुछ काल पश्चात् मुनि विचरण करते हुए उसी राज्य में पाए / राजा ने अपने मुनि हो गये पिता से उसी नगर में चातुर्मास करने की प्रार्थना की। राजा की प्राकांक्षा एवं प्राग्रह के कारण मनि ने वहाँ वर्षावास के उपदेशों से जनता बहुत प्रभावित हुई, किन्तु जैन शासन के विरोधियों को यह सह्य नहीं हुआ और उन्होंने मुनि को बदनाम करने के लिये षड्यंत्र रचा / जब चातुर्मास काल सम्पन्न हुना और मुनि विहार करने के लिये तैयार हए तो विरोधियों के द्वारा सिखाई-पढ़ाई एक गर्भवती दासी पाकर कहने लगी-"मुनिराज ! मैं तो निकट भविष्य में ही तुम्हारे बच्चे की माँ बनने वाली हूँ और तुम मुझे छोड़कर अन्यत्र जा रहे हो ! पीछे मेरा क्या होगा ?" मुनि निष्कलंक थे पर उन्होंने विचार किया—'अगर इस समय मैं चला जाऊँगा तो शासन का अपयश होगा तथा धर्म की हानि होगी।" वे एक शक्तिसम्पन्न साधक थे, दासी की झूठी बात सुनकर कह दिया—'अगर यह गर्भ मेरा होगा तो प्रसव स्वाभाविक होगा, अन्यथा वह तेरा उदर फाड़कर निकलेगा।" __दासी ग्रासन्न-प्रसवा थी किन्तु मुनि पर झूठा कलंक लगाने के कारण प्रसव नहीं हो रहा था / असह्य कष्ट होने पर उसे पुन: मुनि के समक्ष ले जाया गया और उसने सच उगलते हुए कहा"महाराज ! आपके द्वेषियों के कथनानुसार मैंने आप पर झूठा लांछन लगाया था / कृपया मुझे क्षमा करते हुए इस संकट से मुक्त करें।" मुनि के हृदय में कषाय का लेश भी नहीं था / उसी क्षण उन्होंने दासी को क्षमा कर दिया और प्रसव सकुशल हो गया। धर्म-विरोधियों की थू-थू होने लगी तथा मुनि व जैन धर्म का यश और बढ़ गया। यह सब मुनिराज की पारिणामिकी बुद्धि से ही हुआ। (4) देवी-प्राचीन काल में पुष्पभद्र नामक नगर में पुष्पकेतु राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम पुष्पवती, पुत्र का पुष्पचूल तथा पुत्री का पुष्पचूला था। भाई-बहन जब बड़े हए, दुर्भाग्य से माता पुष्पवती का देहान्त हो गया और वह देवलोक में पुष्पवती नाम की देवी के रूप में उत्पन्न हुई। देवी रूप में उसने अवधिज्ञान से अपने परिवार को देखा तो उसके मन में पाया कि अगर पुष्पचूला आत्म-कल्याण के पथ को अपना ले तो कितना अच्छा हो! यह विचारकर उसने पुष्पचला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org