________________ केसरी, अध्यात्मयोगी, उपाध्याय पूज्य सद्गुरुवर्य श्री पुष्करमुनि जी म. के प्रशिष्य हैं, जिन्होंने साहित्य की अनेक विधाओं में लिखा है। उनका आगमसम्पादन का यह प्रथम प्रयास प्रशंसनीय है। यदि यूवाचार्यश्री का अत्यधिक अाग्रह नहीं होता तो सम्भव है, इस सम्पादन कार्य में और भी अधिक विलम्ब होता / पर युवाचार्य श्री को प्रबन प्रेरणा ने मुनिजी को शीघ्र कार्य सम्पन्न करने के लिए उत्प्रेरित किया / तथापि मुनिजी ने बहुत ही निष्ठा के साथ यह कार्य सम्पन्न किया है, इसलिए वे माधवाद के पात्र हैं। मेरा हार्दिक पाशीर्वाद है कि वे साहित्यिक क्षेत्र में अपने मुस्तैदी कदम मांग बढ़ावें / ग्राममों का गहन अध्ययन कर अधिक से अधिक श्रुतसेवा कर जिनशासन की शोभा में श्रीवद्धि करें। उत्तराध्ययन एक ऐसा विशिष्ट प्रागम है, जिसमें चारों अनुयोगों का सुन्दर समन्वय हुआ है। यद्यपि उत्तराध्ययन की परिगणना धर्मकथानुयोग में की गई है, क्योंकि इसके छत्तीस अध्ययनों में से चौदह अध्ययन धर्मकथात्मक हैं / प्रथम, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ और दशम ये छह अध्ययन उपदेशात्मक हैं / इन अध्ययनों में साधकों को विविध प्रकार से उपदेशात्मक प्रेरणाएँ दो गई हैं। द्वितीय, ग्यारहवाँ, पन्द्रहवाँ, सोलह्वाँ, सत्तरहवा, चौबीसवाँ, छन्नीसवाँ, बत्तीसवाँ और पतीसवां अध्ययन ग्राचारात्मक हैं। इन अध्ययनों में श्रमणाचार का गहराई से विश्लेषण हया है। अदाईसवाँ. उनतीमवा, तीसवाँ, इकतीसवाँ, तेतीसवाँ, चौतीमा, छत्तीसवां ये सात अध्ययन सैद्धान्तिक हैं / इन अध्ययनों में सैद्धान्तिक विश्लेषण गम्भीरता के साथ हया है। छत्तीस अध्ययनों में चौदह अध्ययन-धर्म कथात्मक होने से इसे धर्मकथानुयोग में लिया गया है। विषयबाहुल्य होने के कारण प्रत्येक विषय पर बहुत ही बिस्तार के साथ सहज रूप से लिखा जा सकता है। मैंने प्रस्तावना में न अति संक्षिप्त और न अति विस्तृत शैली को ही अपनाया है। अपितु मध्यम शैली को आधार बनाकर उत्तराध्ययन में पाये हुए विविध विषयों पर चिन्तन किया है। यदि विस्तार के साथ उन सभी पहलुओं पर लिखा जाता तो एक विराटकाय ग्रन्थ सहज रूप से बन सकता था। उत्तराध्ययन की तुलना श्रीमद भागवत गीता के साथ की जा सकती है। इस दृष्टि से प्रतिभामूति पं. मुनि श्रीसन्तबालजी ने “जैन दष्टिए गीता" नामक ग्रन्थ में प्रयास किया है। इसी तरह कुछ विद्वानों ने उत्तराध्ययन की तुलना 'धम्मपद' के साथ करने का भी प्रयत्न किया है / समन्वयात्मक दृष्टि से यह प्रयास प्रशंसनीय हैं / पार्श्वनाथ शोध संस्थान वाराणसी से उत्तराध्ययन पर उत्तराध्ययन:एक परिशीलन के रूप में शोध प्रबन्ध भी प्रकाशित हुआ है। इस प्रकार उत्तराध्ययन पर नियुक्ति, भाष्य, चणि, संस्कृत भाषामों में अनेक टीकाएँ और उसके पश्चात विपुल मात्रा में हिन्दी अनुवाद और विवेचन लिखे गये हैं, जो इस आगम की लोकप्रियता का ज्वलन्त उदाहरण हैं। अन्य प्रागमों की भाँति प्रस्तुत प्रागम का संस्करण भी अत्यधिक लोकप्रिय होगा। प्रबुद्ध वर्ग इसका स्वाध्याय कर अपने जीवन को आध्यात्मिक आलोक से पालोकित करेंगे, यही मंगल मनीषा ! ---देवेन्द्रमुनि शास्त्री जैन स्थानक चांदावतों का नोखा दि. 27 जनवरी मां महासती प्रभावती जी की प्रथम पुण्यतिथि 1. जिनकी प्रेरणा के फलस्वरूप प्रस्तुत संस्करण तैयार हुआ, अत्यन्त परिताप है कि जिनागम-ग्रन्थमाला के संयोजक, प्रधानसम्पादक एवं प्राण श्रद्देय युवाचार्यजी इसके प्रकाशन से पूर्व ही देवलोकवासी हो गए !-सम्पादक [ 95 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org