________________ कालद्रव्य द्रव्यों के परिवर्तन में महकारी होता है। मामय, पल, घड़ी, घंटा, महत, प्रहर, दिन-रात, मानाह, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष ग्रादि के भेदों को लेकर वह भी आदि अन्त महित है। द्रव्य को अपेक्षा अनादिनिधन है। प्रज्ञापना 3 14 तथा जीवाजीवाभिगम'१५ मूत्रों में विविध दृष्टियों से जीव और अजीव के भेद-प्रभेद किये गये हैं। हमने यहाँ पर प्रस्तुत बागम में पाये हुए विभागों को लेकर ही संक्षेप में चिन्तन किया है। प्रस्तुत अध्ययन के अन्त में ममाधिमरण का भी सुन्दर निरूपम हुआ है / इस तरह यह अागम ज्ञान-विज्ञान व अध्यात्मचिन्तन का अक्षय कोष है। व्याख्यासाहित्य :उत्तराध्ययननियुक्ति मुल ग्रन्थ के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए प्राचार्यों ने समय-समय पर व्याख्या-साहित्य का निर्माण किया है। जैसे वैदिक पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करने के लिए महर्षि यास्क ने निवंद भाष्य रूप नियुक्ति लिखी वैसे ही प्राचार्य भद्रबाह ने जैन आगमों के पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिए प्राकृत भाषा में नियुक्तियों की रचना की। प्राचार्य भद्रबाह ने दश नियुक्तियों की रचना की। उनमें उत्तराध्ययन पर भी एक नियुक्ति है। इस नियुक्ति में छह मौ सात गाथाएँ हैं। इसमें अनेक पारिभाषिक शब्दों का निक्षेप पद्धति ने व्याख्यान किया गया है और अनेक शब्दों के विविध पर्याय भी दिये हैं। सर्वप्रथम उत्तराध्ययन शब्द की परिभाषा करते हए उत्तर पद का नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, दिशा, तार-क्षेत्र, प्रजापक, प्रति, काल, संचय, प्रधान, ज्ञान, क्रम, गणना और भाव इन पन्द्रह निक्षेगों से चिन्तन क्रिया है।३१६ उत्तर का अर्थ क्रमोत्तर किया है / 317 नियुक्तिकार ने अध्ययन पद पर विचार करते हए नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन नार द्वारों से 'अध्ययन' पर प्रकाप डाला है। प्राग बद्ध और बध्यमान कर्मों के प्रभाव से प्रात्मा को जो अपने स्वभाव में ले जाना है, वह अध्ययन है। दूसरे शब्दों में कहें तो -जिससे जीवादि पदार्थों का अधिगम है या जिससे अधिक प्राप्ति होती है अथवा जिससे शीघ्र ही अभीष्ट अर्थ की सिद्धि होती है, वह अध्ययन है / 315 अनेक भवों से पाते हा प्रष्ट प्रकार के कर्म-रज का जिमसे क्षय होता है, वह भावाध्ययन है। नियुक्ति में पहले पिण्डार्थ और उसके पश्चात प्रत्येक अध्ययन की विशेष व्यारूपा की गई है। प्रथम अध्ययन का नाम विनयथत है। श्रत का भी नाम आदि चार निक्षेपों से विचार किया है। निह्नव अादि द्रव्यश्रु त हैं और जो श्रत में उपयुक्त है वह भावथ त है / मंयोग शब्द की भी विस्तार में व्याख्या की है। संयोग सम्बन्ध संसार का कारण है। उससे जीव कर्म में आबद्ध होता है। उस संयोग से मुक्त होने पर ही वास्तविक यानन्द की उपलब्धि होती 314. प्रज्ञापना, प्रथम पद 315. जीवाजीवाभिगम, प्रतिपत्ति 1-9 316. उत्तगध्ययन नियुक्ति, गाथा 1 317. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथ 3 318. उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा 5 व 319. उत्तगध्ययन नियुक्ति, गाथा 52. [1] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org