________________ अजीव की तरह जीवों के भी भेद-प्रभेद किये गये हैं। वे विभिन्न प्राधारों से हए हैं। एक विभाजन काय को आधार मानकर किया गया है, वह है--स्थावरकाय और त्रसकाय / जिनमें गमन करने की क्षमता का प्रभाव है, वह स्थावर हैं। जिनमें गमन करने की क्षमता है, वह त्रस हैं। स्थावर जीवों के पृथ्वी, जल, तेज, वायू और वनस्पति ये पांच विभाग हैं। तेज और वायु एकेन्द्रिय होने तथा स्थावर नाम कर्म का उदय होने से स्थावर होने पर भी गति-त्रस भी कहलाते हैं। प्रत्येक विभाग के सूक्ष्म और स्थूल ये दो विभाग किये गये हैं / सूक्ष्म जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं और स्थूल जीव लोक के कुछ भागों में होते हैं। स्थूल पृथ्वी के मृदु और कठिन ये दो प्रकार हैं। मद् पृथ्वी के मात प्रकार हैं तो कठिन पृथ्वी के छत्तीस प्रकार हैं। म्थूल जल के पांच प्रकार हैं, स्थूल बनस्पति के प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर ये दो प्रकार हैं। जिनके एक अगेर में एक जीव स्वामी मप में होता है, वह प्रत्येकशरीर है। जिसके एक शरीर मे अनन्त जीव स्वामी रूप में होते हैं. ये माधारणशरीर है। प्रत्येकशरीर बनस्पति के बारह प्रकार हैं तो माधारणशरीर वनस्पति के अनेक प्रकार हैं। त्रस जीवों के इन्द्रियों की अपेक्षा द्वि-इन्द्रिय, त्रि-इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ये चार प्रकार है। द्रय आदि अभिप्रायपूर्वक गमन करते हैं / वे आगे भी बढ़ते हैं तथा पीछे भी हटते हैं। संकुचित होते हैं, फैलते हैं, भयभीत होते हैं, दौड़ने हैं। उनमें गति और आगति दोनों होती हैं। वे सभी त्रस हैं। द्वि-इन्द्रिय, त्रि-इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव सम्मूच्छिमज होते हैं / पंचेन्द्रिय जीव सम्मुच्छिमज और गर्भज ये दोनों प्रकार के होते हैं। गति की दृष्टि से पंचेन्द्रिय के नैरयिक, तिर्यच, मनुष्य और देव ये चार प्रकार हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच के जलचर, स्थलचर, खेचर ये तीन प्रकार हैं / 11 जलचर के मत्स्य, कच्छप आदि अनेक प्रकार हैं / स्थलचर की चतुष्पद और परिसर्प ये दो मुख्य जातियाँ हैं / 312 चतुष्पद के एक खुर वाले, दो खुर वाले, गोल पैर वाले, नख सहित पैर वाले, ये चार प्रकार हैं। परिसर्प की भुजपरिस, उरपरिसप ये दो मुख्य जातियाँ हैं। खेचर की चर्मपक्षी, रोमपक्षी, समुद्गकपक्षी और विततपक्षी ये चार मुख्य जातियां हैं। जीव के समारो और सिद्ध ये दो प्रकार भो हैं। कर्म युक्त जीव संसारी और कर्ममुक्त सिद्ध है / सम्यगदर्शन, सम्यगज्ञान और सम्यक चारित्र तथा सम्यक तप से जीव कर्म बन्धनों से मुक्त बनता है। सिद्ध जीव पूर्ण मुक्त होते हैं, जब कि संसारी जीव कर्म मुक्त होने के कारण नाना रूप धारण करते रहते हैं। पट द्रव्यों में जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य ही सक्रिय हैं, शेष चारों द्रव्य निष्क्रिय हैं। जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य कथंचित विभाव रूप में परिणमते हैं। शेष चारों द्रव्य सदा-सर्वदा स्वाभाविक परिणमन को ही लिये रहते हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, ये तीनों द्रव्य संख्या की दृष्टि से एक-एक हैं। काल द्रव्य असंख्यात हैं। जीव द्रव्य अनन्त है और पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त हैं ! जीव और पुद्गल इन दो द्रव्यों में संकोच और विस्तार होता है किन्तु शेष चार द्रव्यों में संकोच और विस्तार नहीं होता। आकाशद्रव्य अखण्ड होने पर भी उसके लोकाकाश और अलोकाकाश ये दो विभाग किए गए हैं। जिसमें धर्म, अधर्म, काल, जीव, पुद्गल ये पाँच द्रव्य रहते हैं, वह आकाशखण्ड लोकाकाश है / जहाँ इनका अभाव है, सिर्फ अाकाश ही है वह अलोकाकाश है। धर्म ओर अधर्म ये दो द्रब्य सदा लोकाकाश को व्याप्त कर स्थित हैं, जबकि अन्य द्रव्यों की वैसी स्थिति नहीं है। पुद्गल द्रव्य के अणु और स्कन्ध ये दो प्रकार है / अणु का अवगाह्य क्षेत्र प्राकाश का एक प्रदेश है और स्कन्धों की कोई नियत सीमा नहीं है। दोनों प्रकार के पुदगल अनन्त-अनन्त हैं। 313 310. उत्तराध्ययन सूत्र 36 / 107-126. 311. उत्तराध्ययन 36 / 171. 212. उत्तराध्ययन 26179. 313. आचारांग 191 / 18 [8] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org