________________ माधक को बाहार, भय, मैथुन और परिग्रह की रागात्मक चित्त-वृत्ति से दूर रहना चाहिए / न वह हिंसक व्यापार करे. और न भय से भयभीत ही रहे / जिन क्रिया-कलापों से प्राश्रव होता है, वे क्रिया-स्थान हैं / श्रमण उन क्रिया-स्थानों से सदा अलग रहें / अविवेक से असंयम होता है और अविवेक से अनेक अनर्थ होते हैं। इसलिए श्रमण असंयम से सतन दुर रहें / साधना की मफलता व पूर्णता के लिए समाधि अावश्यक है, इसलिए असमाधिस्थानों से श्रमण दर रहे। प्रात्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप मार्ग में स्थित रहता है, वह समाधि है। शबल दोष माधु के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। जिन कार्यों के करने से चारित्र की निर्मलता नष्ट होती है, चारित्र मलीन होने से करबर हो जाता है, उन्हें शवल दोष कहते हैं / 27 शबल दोपों का सेवन करने वाले श्रमण भी शबल कहलाते हैं। उत्तर गुणों में अतिक्रमादि चारों दोषों का एवं मूलगुणों में अनाचार के अतिरिक्त तीन दोषों का सेवन करने मे चारित्र शबल होता है। जिन कारणों से मोह प्रबल होला है, उन मोह-स्थानों से भी दूर रह कर प्रतिपल-प्रशिक्षण माधक को धर्म-माधना में लीन रहना चाहिए, जिससे वह संसार-चक्र से मुक्त होता है। प्रस्तुत अध्ययन में इस प्रकार विविध विषयों का संकलन हया है। यहाँ यह चिन्तनीय है कि छेदसूत्र के रचयिता त केवली भद्रबाह हैं, जो भगवान महावीर के अष्टम पट्टधर थे / उनका निर्वाण वीरनिर्वाण एक मा सत्तर के लगभग हुअा है। उनके द्वारा निर्मित छेदसुत्रों का नाम प्रस्तुत अध्ययन की सत्तरहवीं और अठारहवीं गाथा में हुअा है / वे गाथाएं इसमें कैसे आई ? यह चिन्तनीय है। साधना का विघ्न : प्रमाद बत्तीमवें अध्ययन में प्रमाद का विश्लेषण है / प्रमाद साधना में विघ्न हैं / प्रमाद को निवारण किये विना साधक जितेन्द्रिय नहीं बनता। प्रमाद का अर्थ है--ऐसी प्रवृत्तियाँ, जो साधना में बाधा उपस्थित करती हैं, साधक की प्रगति को अवरुद्ध करती हैं। उत्तराध्ययन नियुक्ति में प्रमाद के पाँच प्रकार बताये है८°—मद्य, विषय, कपाय, निद्रा और विकथा / स्थानांग में प्रमाद-स्थान छह बताये हैं / 81 उसमें विकथा के स्थान पर यत और छठा प्रतिलेखनप्रमाद दिया है। प्रवचनमारोद्धार में२८२ प्राचार्य नेमीचन्द्र ने प्रमाद के अज्ञान, संशय, मिथ्याज्ञान, राग, द्वेष, स्मतिभ्रश, धर्म में अनादर, मन, वचन और काया का दुष्परिणाम, ये पाठ प्रकार बताये हैं। माधना की दृष्टि से प्रस्तुत अध्ययन में विपुल सामग्री है। माधक को प्रतिपल-प्रतिक्षण जागरूक रहने का संदेश दिया है / जैसे भगवान् ऋषभदेव एक हजार वर्ष तक अप्रमत्त रहे, एक हजार वर्ष में केवल एक रात्रि को उन्हें निद्रा पाई थी। श्रमण भगवान महावीर बारह वर्ष, तेरह पक्ष साधना-काल में रहे / इतने दीर्घकाल में केवल एक अन्तम हर्न निद्रा आई / भगवान ऋषभ और महावीर ने केवल निद्रा-प्रमाद का सेवन किया था / 283 शेप ममय वे पूर्ण अप्रमत्त रहे। वैसे ही श्रमणों को अधिक से अधिक अनमत रहना चाहिए / 219. ममवायांग, अभयदेववृत्ति 21 87. उनराध्ययन नियुक्ति, गाथा 520 81. स्थानांग 6, मूत्र 502 22. प्रवचनमागेद्वार, द्वार 207 गाथा 1122-1123 83. (क) उत्तराध्ययन नियुक्ति, गाथा 523-524 (ख) उत्तगध्ययन वहदवत्ति, पत्र-६२०. [81] Jain Education International. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org