________________ परिशिष्ट 1 : उत्तराध्ययन को कतिपय सूक्तियाँ] [703 सद्दे अतित्ते य परिग्गहम्मि, सत्तोवसत्तो न उवेइ तुद्धि / शब्द आदि विषयों में अतृप्त और परिग्रह में आसक्त रहने वाला प्रात्मा कभी संतोष को प्राप्त नहीं होता। पदचित्तो य चिणाइ कम्म, जं से पुणो होइ दुहं विवागे // 32 / 46 / / आत्मा प्रदुष्टचित होकर कर्मों का संचय करता है / वे कर्म विपाक में बहुत दुःखदायी होते हैं / न लिप्पई भवमझे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं // 32 // 47 / / जो प्रात्मा विषयों के प्रति अनासक्त है, वह संसार में रहता हुआ भी उसमें लिप्त नहीं होता जैसे कि पुष्करिणी के जल में रहा हुआ पलाश-कमल / एविदियत्था य मणस्स प्रत्था, दुक्खस्स हेउं मणुयस्स रागिणो। ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं, न वीयरागस्स करेंति किंचि // 32 // 100 / / मन एवं इन्द्रियों के विषय रागी जन को ही दुःख के हेतु होते हैं, बीतराग को तो वे किंचित् , मात्र भी दुःख नहीं पहुंचा सकते / न कामभोगा समयं उति, न यावि भोगा विगई उति / जे तप्पओसी य परिग्गही य, . सो तेसि मोहा विगई उवेइ // 32 // 10 // कामभोग-शब्दादि विषय न तो स्वयं में समता के कारण होते हैं और न विकृति के हो / किन्तु जो उनमें द्वेष या राग करता है वह उनमें मोह से राग-द्वेष रूप विकार को प्राप्त होता है / न रसट्टाए भुजिज्जा, जवणट्ठाए महामुणी // 35 / 17 / / साधु स्वाद के लिए नहीं, किन्तु जीवनयात्रा के निर्वाह के लिए भोजन करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org