________________ 702 // [उत्तराध्ययनसूत्र जहा य अंडप्पभवा बलागा, अंडं बलागप्पभवं जहा य / एमेव मोहाययणं खु तण्हा, मोहं च तण्हाययणं वयन्ति // 32 / 6 / / जिस प्रकार बलाका (बगुली) अंडे से उत्पन्न होती है और अण्डा बलाका से, इसी प्रकार मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है और तृष्णा मोह से / रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्मं च जाईमरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति / / 32 / 7 / / राग और द्वेष, ये दो कर्म के बीज हैं, कर्म मोह से उत्पन्न होता है / कर्भ ही जन्म-मरण का मूल है और जन्म मरण ही वस्तुतः दुःख है। दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो, मोहो हाम्रो जस्स न होइ तहा। तण्हा हया जस्स न होइ लोहो, ___ लोहो हओ जस्स न किंचणाई // 32 / 8 / / ___ जिसे मोह नहीं होता उसका दुःख नष्ट हो जाता है / जिसे तृष्णा नहीं होती उसका मोह नष्ट हो जाता है / जिसे लोभ नहीं होता उसकी तृष्णा नष्ट हो जाती है और जो अकिंचन (अपरिग्रही) है उसका लोभ नष्ट हो जाता है / रसा पगामं न निसेवियन्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराणं / दित्तं च कामा समभिवंति, दुसं जहा साउफलं व पक्खी / 32 / 10 / / ब्रह्मचारी को घी दूध आदि रसों का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि रस प्रायः उद्दीपक होते हैं / उद्दीप्त पुरुष के निकट काम-भावनाएँ वैसे ही चलो आती हैं जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष के पास पक्षी चले आते हैं। सब्वस्स लोगस्स सदेवगस्स, कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुखं // 32 // 16 // देवताओं सहित समग्र प्राणियों को जो भी दुःख प्राप्त हैं वे सब कामासक्ति के कारण ही हैं / लोभाविले प्राययई अदत्तं // 32 / 26 / / जब अत्मा लोभ से कलुषित होता है तो चोरी करने में प्रवृत्त होता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org