________________ 694] [उत्तराध्ययनसूत्र अह पंचहि ठाणेहि, जेहिं सिक्खा न लगभई / थंभा कोहा पमाएणं, रोगेणालस्सएण वा // 11 / 3 / / अंहकार, क्रोध, प्रमाद [विषयासक्ति] रोग और आलस्य, इन पाँच कारणों से व्यक्ति शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता। न य पावपरिक्खेवी, न य मित्तेसु कुप्पई / अप्पियस्सावि मित्तस्स, रहे कल्लाण भासई // 12 // 12 // सुशिक्षित व्यक्ति न किसी पर दोषारोपण करता है और न कभी परिचितों पर कुपित होता है / और तो क्या, मित्र से मतभेद होने पर भी परोक्ष में उसकी भलाई की ही बात करता है। _ पियंकरे पियंवाई, से सिक्खं लधुमरिहई // 11 // 14 // प्रियंकर और प्रियवादी व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करने में सफल होता है। महप्पसाया इसिणो हवन्ति, न हु मुणी कोवपरा हवन्ति // 12 / 31 / / ऋषि-मुनि सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं, कभी किसी पर क्रोध नहीं करते। सक्खं खु दीसह, तवोविसेसो, न दीसई जाइविसेस कोई // 12 // 37 / / ___ तप-त्याग की विशेषता तो प्रत्यक्ष दिखलाई देती है किन्तु जाति की कोई विशेषता नजर नहीं पाती है। धम्मे हरए बम्भे सन्तितित्थे, अणाविले अत्तपसन्नलेसे / जहि सिणानो विमलो विसुद्धो, सुसीइभूओ पजहामि दोसं // 12 // 46 / / धर्म मेरा जलाशय है, ब्रह्मचर्य शान्तितीर्थ है, अात्मा की प्रसन्नलेश्या मेरा निर्मल घाट है. जहाँ स्नान कर प्रात्मा कर्ममल से मुक्त हो जाता है / __ सव्वं सुचिण्णं सफलं नराणं // 13 // 10 // मनुष्य के सभी सुचरित [सत्कर्म] सफल होते हैं / __ सम्वे कामा दुहावहा / / 13 / 16 / / सभी काम-भोग अन्ततः दुखावह [दुःखद] ही होते हैं / कत्तारमेव अणुजाइ कम्मं // 13 // 23 // कर्म कर्ता का अनुसरण करते हैं-उसका पीछा नहीं छोड़ते / वणं जरा हरइ नरस्स रायं ! // 13 / 26 / / राजन् ! जरा मनुष्य की सुन्दरता को समाप्त कर देती है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org