________________ परिशिष्ट 1 : उत्तराध्ययन को कतिपय सूक्तियाँ] 691 . घोरा मुहत्ता प्रबलं सरीरं, भारंडपक्खी व चरेऽप्पमते // 4 // 6 // समय भयंकर है और शरीर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण हो रहा है / अत: भारंड पक्षी की तरह सदा सावधान होकर विचरण करना चाहिए / सुत्तेसु या वि पडिबुद्धजीवी / / 4 / 7 / / प्रबुद्ध साधक सोये हुए (प्रमत्त मनुष्यों) के बीच भी सदा जागृत अप्रमत्त रहे / छंदं निरोहेण उवेइ मोक्खं / / 4 / 8 / / कामनाओं के निरोध से मुक्ति प्राप्त होती है / कंखे गुणे जाव सरीरभेओ / / 4113 // जब तक जीवन है सद्गुणों की आराधना करते रहना चाहिए। चीराजिणं नगिणिणं, जडी संघाडि मुडिणं / एयाणि वि न तायंति, दुस्सीलं परियागयं // 5 / 21 / / चीवर, मृगचर्म, नग्नता, जटाएँ, कन्था और शिरोमुण्डन-यह सभी उपक्रम प्राचारहीन साधक की (दुर्गति से) रक्षा नहीं कर सकते / भिक्खाए वा गिहत्थे वा, सुधए कम्मई दिवं // 5 / 22 / / भिक्षु हो या गृहस्थ, जो सुव्रती है वह देवगति प्राप्त करता है। गिहिवासे वि सुब्बए / / 5 / 24 / / धर्मशिक्षासंपन्न गृहस्थ गृहवास में भी सुव्रती है / न संतसंति मरणंते, सोलवन्ता बहुस्सुया / / 5 / 26 / / ज्ञानी और सदाचारी आत्माएँ मरण काल में भी त्रस्त अर्थात् भयाक्रांत नहीं होते। जावंतऽविज्जा पुरिसा, सम्वे ते दुक्खसंभवा / लुप्पंति बहुसो मूढा संसारम्मि अणतए // 6 / 1 / / जितने भी अविद्यावान्--तत्त्व-बोध-हीन पुरुष हैं वे दुःखों के पात्र होते हैं। इस अनन्त संसार में वे मूढ प्राणी बार-बार विनाश को प्राप्त होते रहते हैं / अप्पणा सच्चमेसेज्जा // 6 // 2 // अपनी प्रात्मा के द्वारा, स्वयं की प्रज्ञा से सत्य का अनुसन्धान करो। मेत्ति भएसु कप्पए / / 6 / 2 / / समस्त प्राणियों पर मित्रता का भाव रखना चाहिए। न हणे पाणिणो पाणे, भयवेराओ उवरए // 67 / / जो भय और वैर से उपरत-मुक्त हैं वे किसी प्राणी की हिंसा नहीं करते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org