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________________ 680] [उत्तराध्ययनसून [248] इस प्रकार संसारस्थ और सिद्ध जीवों का व्याख्यान किया गया। रूपी और अरूपी के भेद से, दो प्रकार के अजीव का व्याख्यान भी हो गया। 249. इइ जीवमजीवे य सोच्चा सहिऊण य। ___सम्वनयाण अणुमए रमेज्जा संजमे मुणी / / [246] इस प्रकार जीव और अजीव के व्याख्यान को सुन कर और उस पर श्रद्धा करके (ज्ञान एवं क्रिया आदि) सभी नयों से अनुमत संयम में मुनि रमण करे / विवेचन-जीवाजीविभक्ति : श्रवण, श्रद्धा एवं प्राचरण में परिणति--प्रस्तुत गाथा 246 में बताया गया है कि जीव और अजीव के विभाग को सम्यक् प्रकार से सुने, तत्पश्चात् उस पर श्रद्धा करे कि-'भगवान् ने जैसा कहा है, वह सब सत्य है-यथार्थ है।' इस प्रकार से उसे श्रद्धा का विषय बनाए / श्रद्धा सम्यक् होने से जीवाजीव का ज्ञान भी सम्यक् होगा। किन्तु इतने मात्र से ही साधक अपने को कृतार्थ न मान ले, इसलिए कहा गया है-'रमेज्ज संजमे मुणी' / इसका फलितार्थ यह है कि मुनि जीवाजीव पर सम्यक् श्रद्धा करे, सम्यक् ज्ञान प्राप्त करे और तत्पश्चात् ज्ञाननय और क्रियानय के अन्तर्गत रहे हुए नेगमादि सर्वनयसम्मत संयम–अर्थात्-चारित्र में रमण करे, उक्त ज्ञान और श्रद्धा को क्रियारूप में परिणत करे। अन्तिम पाराधना : सलेखना का विधि-विधान 250. तओ बहूणि वासाणि सामण्णमणुपालिया। इमेण कमजोगेण अप्पाणं संलिहे मुणी // [250] तदनन्तर अनेक वर्षों तक श्रामण्य का पालन करके मुनि इस (आगे बतलाए गए) क्रम से प्रात्मा की संलेखना (विकारों से क्षीणता) करे। 251. बारसेव उ वासाइं संलेहुक्कोसिया भवे / ___ संवच्छरं मज्झिमिया छम्मासा य जहनिया // [251] उत्कृष्ट संलेखना बारह वर्ष की होती है, मध्यम एक वर्ष की और जघन्य (कम से कम) छह महीने की होती है। 252. पढमे वासचउक्कम्मि विगईनिज्जहणं करे। बिइए वासचउक्कम्मि विचित्तं तु तवं चरे / / [252] प्रथम चार वर्षों में दूध आदि विकृतियों (विग्गइयों-विकृतिकारक वस्तुओं) का नि!हण (त्याग) करे / दूसरे चार वर्षों तक विविध प्रकार का तप करे / 253. एगन्तरमायाम कटु संवच्छरे दुवे / तओ संवच्छरद्धं तु नाइविगिट्ठ तवं चरे॥ 1. उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 4, पृ. 936 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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