________________ छत्तीसवां अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति] [679 ज्योतिष्क—ये सभी तिर्यग्लोक को अपनी ज्योति से प्रकाशित करते हैं, इसलिए ज्योतिष्क देव कहलाते हैं। ये अढाई द्वीप में गतिशील हैं, अढाई द्वीप से बाहर स्थिर हैं। ये निरन्तर सुमेरुपर्वत की प्रदक्षिणा किया करते हैं। मेरुपर्वत के 1121 योजन को छोड़ कर इन के विमान चारों दिशाओं से उसकी सतत प्रदक्षिणा करते रहते हैं / वैमानिकदेव-ये विमानों में ही निवास करते हैं, इसलिए वैमानिक या विमानवासो देव कहलाते हैं। जिन वैमानिक देवों में इन्द्र, सामानिक, त्रास्त्रिश आदि दस प्रकार के देवों का कल्प (अर्थात् मर्यादा या आचार-व्यवहार) हो, वे देव 'कल्पोपग' या 'कल्पोपपन्न' कहलाते हैं, इसके विपरीत जिन देवलोकों में इन्द्रादि की भेद-मर्यादा नहीं होती, वहाँ के देव 'कल्पातीत (अहमिन्द्रस्वामी-सेवकभावरहित) कहलाते हैं। सौधर्म से लेकर अच्युत देवलोक (कल्प) तक के देव 'कल्पोपपन्न' और इनसे ऊपर नौ ग्रैवेयक एवं पंच अनुत्तर विमानवासी देव 'कल्पातीत' कहलाते हैं / जिसजिस नाम के कल्प (देवलोक) में जो देव उत्पन्न होता है, वह उसी नाम से पुकारा जाता है / प्रैवेयकदेव-लोक का संस्थान पुरुषाकार है, उसमें ग्रीवा (गर्दन) के स्थानापन्न नौ ग्रेवेयक देव कहलाते हैं। जिस प्रकार ग्रीवा में आभरणविशेष होता है, उसी प्रकार लोकरूप पुरुष के ये नौ भरण स्वरूप हैं। इन विमानों में जो देव रहते हैं, वे ग्रेवेयक कहलाते हैं। प्रैवेयकों में तीनतीन त्रि -(1) अधस्तन-अधस्तन, (2) अधस्तन-मध्यम और (3) अधस्तन-उपरितन; (1) मध्यमअधस्तन, (2) मध्यम-मध्यम और (3) मध्यम-उपरितन और (1) उपरितन-अधस्तन, (2) उपरितन-मध्यम और (3) उपरितन-उपरितन / अनुत्तरविमानवासी देव-ये देव सबसे उत्कृष्ट तथा सबसे ऊँचे एवं अन्तिम विमानों में रहते हैं, इसलिए अनुत्तरविमानवासी कहलाते हैं / ये विजय, वैजयन्त आदि नाम के पांच देव हैं / ' देवों की कायस्थिति-जिन देवों की जो जघन्य-उत्कृष्ट आयुस्थिति कही गई है, वही उनकी जघन्य-उत्कृष्ट कायस्थिति है। इसका अभिप्राय यह है कि देव मर कर अनन्तर (भव में) देव नहीं हो सकता, इस कारण देवों की जितनी अायुस्थिति है, उतनी हो उनको कायस्थिति है / / अन्तरकाल-देवपर्याय से च्यव कर पुनः देवपर्याय में देवरूप में उत्पन्न होने का उत्कृष्टअन्तर (व्यवधान) अनन्तकाल का बताया गया है, उसका तात्पर्य यह है कि कोई देव यदि देवशरीर का परित्याग कर अन्यान्य योनियों में जन्म लेता हुआ, फिर वहाँ से मर कर पुनः देवयोनि में जन्म ले तो अधिक से अधिक अन्तर अनन्तकाल का और कम से कम अन्तर एक अन्तर्मुहूर्त का पड़ेगा।" उपसंहार 248. संसारत्था य सिद्धा य इइ जीवा वियाहिया। रुविणो चेवऽरूबी य अजीवा दुविहा वि य / 1. (क) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. 2, पृ. 911-912 (ख) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, भा. 2, पत्र 362 से 365 तक 2. उत्तराध्ययन. (गुजराती भाषान्तर) भा. 2, पत्र 366 3. उत्तरा. प्रियशिनीटीका, भा. 4, पृ. 934 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org