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________________ 672] [उत्तराध्ययनसूत्र 203. एएसि वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो॥ [203] वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से इनके हजारों भेद हैं। विवेचन-प्रकर्मभूमिक, कर्मभूमिक और अन्तर्वीपक मनुष्य : अकर्मभूमिक-अकर्मभूमि (-भोगभूमि) में उत्पन्न, अर्थात्---यौलिक मानव / कर्मभूमिक-कर्मभूमि में अर्थात् भरतादि क्षेत्र में उत्पन्न / अन्तर्वीपक-छप्पन अन्तर्वीपों में उत्पन्न / ' कर्मभूमिक : पन्द्रह भेद-पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह, ये कुल मिला कर 15 कर्मभूमियाँ हैं, इनमें उत्पन्न होने वाले कर्मभूमिक मनुष्य भी 15 प्रकार के हैं। - अकर्मभूमिक: तीस भेद--५ हैमवत, 5 हैरण्यवत, 5 हरिवर्ष, 5 रम्यकवर्ष, 5 देवकुरु और 5 उत्तरकुरु, ये कुल मिलाकर 30 भेद अकर्मभूमि के हैं। इनमें उत्पन्न होने वाले अकर्मभूमिक भी 30 प्रकार के हैं। अन्तर्वीपक : छप्पन भेद-वैताढ्य पर्वत के पूर्व और पश्चिम के सिरे पर जम्बूद्वीप की वेदिका के बाहर दो-दो दाढाएँ विदिशा की ओर निकली हुई है। उनमें से पूर्व की दो दाढों में से एक ईशान की अोर और दूसरी अाग्नेय (अग्निकोण) की अोर लम्बी चली जाती है। पश्चिम की दो दाढों में से एक नैऋत्य की अोर और दूसरी वायव्यकोण की ओर जाती है। उन प्रत्येक दाढा पर जगती के कोट से तीन-तीन सौ योजन आगे जाने पर 3 योजन लम्बे-चौड़े कुल चार अन्तर्वीप पाते हैं। फिर वहाँ से 400-400 योजन आगे जाने पर 4 योजन लम्बे-चौड़े दूसरे 4 अन्तर्वीप पाते हैं। इस प्रकार सौ-सौ योजन आगे क्रमशः बढ़ते जाने पर उतने ही योजन के लम्बे और चौड़े, चार-चार अन्तर्वीप आते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक दाढा पर 7-7 अन्तर्वीप होने से चारों दाढानों के कुल 28 अन्तर्वीप हैं। उनके नाम क्रम से इस प्रकार हैं-प्रथम चतुष्क में चार-(१) एकोरुक, (2) आभाषिक, (3) वैषाणिक और (4) लांगुलिक / द्वितीय चतुष्क में चार-(५) हयकर्ण, (6) गजकर्ण, (7) गोकर्ण और (8) शष्कुलोकर्ण / तृतीय चतुष्क में चार-(8) आदर्शमुख, (10) मेषमुख, (11) हयमुख और (12) गजमुख / चतुर्थ चतुष्क में चार-(१३) अश्वमुख, (14) हस्तिमुख, (15) सिंहमुख और (16) व्याघ्रमुख / पंचम चतुष्क में चार-(१७) अश्वकर्ण, (18) सिंहकर्ण, (16) गजकर्ण और (20) कर्णप्रावरण,। छठे चतुष्क में चार-(२१)उल्कामुख, (22) विद्युन्मुख, (23) जिह्वामुख, (24) मेघमुख / सप्तम चतुष्क में चार-(२५) घनदन्त, (26) गूढदन्त, (27) श्रेष्ठदन्त और (28) शुद्धदन्त / इन सब अन्तर्दीपों में द्वीप के सदृश नाम वाले युगलिया रहते हैं / इसी प्रकार इन्हों नाम वाले शिखरो पर्वत के भी अन्य अट्ठाईस अन्तर्वीप हैं / वे सब पूर्ववर्ती अट्ठाईस नामों के सदृश नाम आदि वाले होने से अभेद की विवक्षा से पृथक् कथन नहीं किया गया है। अतः सूत्र में अट्ठाईस भेद ही कहे गए हैं। कुल मिलाकर 56 भेद हुए। 1. उत्तरा. (गुजरातो भाषान्तर) भा. 2, पत्र 360, 2. वही, पत्र 360, 3. वहो, पत्र 360. 4. वही, पत्र 360-361 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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