________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति] [655 104. असंखकालमुक्कोसं अन्तोमुहत्तं जहन्नयं / विजमि सए काए पणगजीवाणं अन्तरं / / [104] वनस्पतिकायिक पनक जीवों का स्व-काय (वनस्पति-शरीर) को छोड़ कर पुनः वनस्पति-शरीर में उत्पन्न होने में जो अन्तर होता है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त का और उत्कृष्ट असंख्यात काल का है। 105. एएसि वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ। संठाणादेसमो वावि विहाणाई सहस्ससो।। [105] इन वनस्पतिकायिक (-जीवों) के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से हजारों भेद हैं। 106. इच्चेए थावरा तिविहा समासेण वियाहिया / इत्तो उ तसे तिविहे बुच्छामि अणुपुत्वसो॥ [106] इस प्रकार संक्षेप से इन तीन प्रकार के स्थावर जीवों का निरूपण किया गया है / अब यहाँ से आगे क्रमश: तीन प्रकार के त्रस जीवों का निरूपण करूंगा। विवेचन-वनस्पति में जीव है-पुरुष के अंगों की तरह छेदने से उनमें म्लानता देखो जाती है, कुछ वनस्पतियों में नारी-पदाघात आदि से विकार होता है, इसलिए भी वनस्पति में जीव है / * वनस्पति ही जिसका शरीर है, ऐसा जीव, वनस्पतिकाय या वनस्पतिकायिक कहलाता है। इसके मुख्यतः दो रूप हैं-साधारणशरीर और प्रत्येकशरीर / जिन अनन्त जीवों का एक ही शरीर होता है, यहाँ तक कि आहार और श्वासोच्छ्वास भी समान ही होता है, वे साधारणवनस्पति जीव हैं और जिन वनस्पति जीवों का अपना अलग-अलग शरीर होता है, वे प्रत्येकवनस्पति जीव हैं। साधारण शरीर वाले वनस्पति जीव एक शरीर के आश्रित अनन्त रहते हैं, प्रत्येकजीव में एक शरीर के आश्रित एक ही जीव रहता है।' गुच्छ और गुल्म में अन्तर-गुच्छ वह होता है, जिसमें पत्तियाँ या केवल पतली टहनियाँ फैली हों, वह पौधा / जैसे-बैंगन, तुलसी श्रादि / तथा गुल्म वह है, जो एक जड से कई तनों के रूप में निकले, वह पौधा / जैसे--कटसरैया, कैर आदि / लता और वल्ली में अन्तर --लता किसी बड़े पेड़ पर लिपट कर ऊपर को फैलती है, जबकि वल्ली भूमि पर ही फैल कर रह जाती है। जैसे—माधवी, अतिमुक्तक लता आदि, ककड़ी, खरबूजा आदि की वेल (वल्ली)। ओषधितृण ---अर्थात एक फसल वाला पौधा / जैसे गेहूँ, जौ आदि / 'पनक' का अर्थ - इसका सामान्य अर्थ सेवाल, या जल पर की काई है। * स्याद्वादमंजरी 29 // 330110 1. उत्तरा. प्रियशनीटीका, भा. 4, पृ. 843 2. उत्तरा. (टिप्पण) (मुनि नथमल जी), पृ. 326 3. वही, पृ. 336 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org