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________________ 648] [उत्तराध्ययनसूत्र सिद्ध : ज्ञानदर्शन रूप-सिद्ध ज्ञान-दर्शन की ही संज्ञा वाले हैं, अर्थात् ज्ञान और दर्शन के उपयोग बिना उनका दूसरा कोई स्वरूप नहीं है। इस कथन से जो नैयायिक मुक्ति में ज्ञान का नाश मानते हैं, उनके मत का खण्डन किया गया / ' सिद्ध : संसार-पार-निस्तीर्ण ---'संसार के पार पहुँचे हुए' कहने से जो दार्शनिक 'मुक्ति में जाकर धर्म-तीर्थ के उच्छेद के समय मुक्तों का पुन: संसार में आगमन मानते हैं, उनके मत का निराकरण हो गया। इह बोंदि चइत्ताणं-यहाँ पृथ्वी पर शरीर को छोड़ कर वहाँ लोकाग्र में स्थित होते हैं / इसका अभिप्राय इतना ही है कि गतिकाल का सिर्फ एक समय है। अत: पूर्वापरकाल को स्थिति असंभव होने से जिस समय भवक्षय होता है, उसी समय में लोकाग्र तक गति और मोक्ष-स्थिति हो जाती है / निश्चय दृष्टि से तो भवक्षय होते ही यहीं सिद्धत्व भाव प्राप्त हो जाता है। सिद्धि वरगइं गया-"(मुक्त) जीव सिद्ध नाम की श्रेष्ठगति में पहुँच गए।" इस कथन से यह बताया गया है कि कर्म का क्षय होने पर भी उत्पत्ति समय में स्वाभाविक रूप से लोक के अग्रभाग तक सिद्ध जीव गमन करता है, अर्थात् वहाँ तक सिद्ध जीव गतिक्रिया सहित भी है। सिद्ध लोकाग्र में स्थित हैं, इसका प्राशय यही है कि उनकी ऊर्ध्वगमनरूप गति वहीं तक है। आगे अलोक में गतिहेतुक धर्मास्तिकाय का अभाव होने से गति नहीं है।' संसारस्थ जीव 68. संसारत्था उ जे जीवा दुविहा ते वियाहिया। तसा य थावरा चेव थावरा तिविहा तहि // [68] जो संसारस्थ (संसारी) जीव हैं, उनके दो भेद हैं--बस और स्थावर / उनमें से स्थावर जीव तीन प्रकार के हैं। विवेचन–स और स्थावर-(१) स का लक्षण---अपनी रक्षार्थ स्वयं चलने-फिरने की शक्ति वाले जीव, या त्रस्त-भयभीत होकर गति करने वाले या बस नामकर्म के उदय वाले जीव / / स्थावर स्थावर नामकर्म के उदय वाले या एकेन्द्रिय जीव / एकेन्द्रिय को स्थावर जीव इसलिए कहा है कि वह एक मात्र स्पर्शेन्द्रिय के द्वारा ही जानता, देखता, खाता है, सेवन करता और उसका स्वामित्व करता है। स्थावर नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई विशेषता के कारण पृथ्वीकायिक 1. उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, भा. 2, पत्र 343-344 2. वही, पत्र 344 3. (क) उत्तरा. (साध्वी चन्दना) पृ. 478 (ख) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, भा. 2, पत्र 344 4. (क) जैनेन्द्र सिद्धान्तकोष, भा. 2, पृ. 397 (ख) त्रस्यन्ति उद्विजन्ति इति प्रसाः / -राजवातिक 2 / 12 / 2 (ग) 'यदुदयाद् द्वीन्द्रियादिषु जन्म तत् असनाम / ' सर्वार्थ सिद्धि 111391 (घ) जस्स कम्मस्सदएण जीवाणं संचरणासंरचणभावो होदि तं कम्म तसणाम। -धवला 1315, 1101 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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