________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीवविभक्ति] [647 साधारणतया जीव तिर्यक्लोक से सिद्ध होते हैं, परन्तु कभी-कभी मेरुपर्वत की चूलिका पर से भी सिद्ध होते हैं / मेरुपर्वत की ऊँचाई 1 लाख योजन परिमाण है। अतः इस ऊर्ध्वलोक की सीमा से मुक्त होने वाले जीवों का सिद्धक्षेत्र ऊर्वलोक ही होता है। सामान्यतया अधलोक से मुक्ति नहीं होती, परन्तु महाविदेह क्षेत्र की दो विजय, मेरु के रुचकप्रदेशों से एक हजार योजन नीचे तक चली जाती हैं, जबकि तिर्यक्लोक की कुल सीमा 600 योजन है, अत: उससे आगे अधोलोक की सीमा आ जाती है, जिसमें 100 योजन की भूमि में जीव मुक्त होते हैं / लिंग, अवगाहना एवं क्षेत्र की दृष्टि से सिद्धों की संख्या-गाथा 51 से 54 तक के अनुसार एक समय में नपुंसक दस, स्त्रियाँ 20 और पुरुष 108 तक सिद्ध हो सकते हैं। एक समय में गृहस्थलिंग में 4, अन्यलिंग में 10 तथा स्वलिंग में 108 जीव सिद्ध हो सकते हैं। एक समय में उत्कृष्ट अवगाहना में 2, मध्यम अवगाहना में 108 और जघन्य अवगाहना में 4 सिद्ध हो सकते हैं। एक समय में ऊर्ध्वलोक में 4, अधोलोक में 20, तिर्यक्लोक में 108, समुद्र में 2 और जलाशय में 3 जीव सिद्ध हो सकते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में स्पष्ट बताया गया है कि क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबुद्ध, बुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहना, अन्तर, संख्या और अल्पबहुत्व, इन आधारों पर सिद्धों की विशेषताओं का विचार किया जाता है / ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी-औपपातिक सूत्र में सिद्ध शिला के बताए हुए 12 नामों में से यह दूसरा नाम है। सिद्धों को अवस्थिति-मुक्त जीव समग्र लोक में व्याप्त होते हैं, इस मत का निराकरण करने के लिए कहा गया है--लोएगदेसे ते सव्वे--अर्थात्-सर्व सिद्धों की आत्माएं लोक के एक देश में (परिमित क्षेत्र) में अवस्थित होती हैं। पूर्वावस्था में 500 धनुष को उत्कृष्ट अवगाहना वाले जीवों को आत्मा 333 धनुष 1 हाथ 8 अंगुल परिमित क्षेत्र में, मध्यम अवगाहना (दो हाथ से अधिक और 500 धनुष से कम अवगाहना वाले जीवों की आत्मा अपने अन्तिम शरीर की अवगाहना से त्रिभागहीन क्षेत्र में अवस्थित होती है, तथा पूर्वावस्था में जघन्य (2 हाथ की) अवगाहना वाले जीवों की अात्मा 1 हाथ 8 अंगुल परिमित क्षेत्र में अवस्थित होती है। शरीर न होने पर भी सिद्धों को अवगाहना होती है, क्योंकि अरूपी आत्मा भी द्रव्य होने से अपनी अमूर्त प्राकृति तो रखता ही है। द्रव्य आकृतिशून्य कदापि नहीं होता। सिद्धों की प्रात्मा आकाश के जितने प्रदेश-क्षेत्रों का अवगाहन करता है, इस अपेक्षा से सिद्धों की अवगाहना है / 1. (क) वही, गुजराती बाषान्तर भा. 2, पत्र 340 (ख) उत्तरा. बृहद्वत्ति, पत्र 683 (ग) उत्तरा. टिप्पण (मुनि नथमलजी) पृ. 318 2. (क) उत्तरा. गुजराती भाषान्तर, भा. 2, पत्र 341 (ख) "क्षेत्र-काल-गति-लिंग-तीर्थ-चारित्र-प्रत्येकबुद्धबोधित-ज्ञानावगाहनान्तर-संख्याऽल्पबहुत्वत: साध्याः / " --तत्त्वार्थ. 107 3. औपपातिकसूत्र, सू. 46 4. उत्तरा. टिप्पण (मुनि नथमलजी) पृ. 319 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org