________________ छत्तीसवाँ अध्ययन : जीवाजीव-विभक्ति अध्ययनसार * प्रस्तुत छत्तीसवें अध्ययन का नाम है-जीवाजीव-विभक्ति (जीवाजीवविभत्ती)। इसमें जीव और अजीव के विभागों (भेद-प्रभेदों) का निरूपण किया गया है। * समग्र सृष्टि जड़-चेतनमय है। यह लोक जीव (चेतन) और अजीव-(जड़) का विस्तार है। जीव और अजीवद्रव्य समग्रता से प्राकाश के जिस भाग में हैं, वह आकाशखण्ड 'लोक' कहलाता है / जहाँ ये नहीं हैं, वहाँ केवल आकाश ही है, जिसे 'अलोक' कहते हैं। लोक स्वरूपतः (प्रवाह से) अनादि-अनन्त है. अतः न इसका कोई कर्ता है, न धर्ता है और न संहर्ता / ' जीव और अजीव, ये दो तत्त्व ही मूल हैं। शेष सब तत्त्व या द्रव्य इन्हीं दो के संयोग या वियोग से माने जाते हैं / जीव पीर अजीव का संयोग प्रवाहरूप से अनादि है; विशेष रूप से सादि-सान्त है / यह संयोग ही संसारी जीवन है / क्योंकि जब तक जीव के साथ कर्मपुद्गलों या अन्य सांसारिक पदार्थों का संयोग रहता है, तब तक उसे जन्म-मरण करना पड़ता है। जीव के देह, इन्द्रिय, मन, भाषा, सुख, दुःख आदि सब इसी संयोग पर आधारित हैं / प्रवाहरूप से अनादि यह संयोग, सान्त भी हो सकता है, क्योंकि राग-द्वेष ही उक्त संयोग के कारण हैं / कारण को मिटा देने पर रागद्वेषजनित कर्मबन्धन और उससे प्राप्त यह संसार-भ्रमणरूप कार्य स्वतः ही समाप्त हो जाता है। जीव और अजीव की इस संयुक्ति को मिटाना और विभक्ति (पृथक) करना अर्थात् साधक के लिए जीव और अजीव का भेदविज्ञान करना ही इस अध्ययन का उद्देश्य है, जिसे शास्त्रकार ने अध्ययन के प्रारम्भ में ही व्यक्त किया है। जीव और अजीव का भेदविज्ञान करनाविभक्ति करना ही तत्त्वज्ञान का फल है, वही सम्यग्दर्शन है, सम्यग्ज्ञान है, जिनवचन में अनुराग है। जिन-वचनों को हृदयंगम करके संयमी पुरुष उसे जीवन में उतारता है / इसी हेतु से सर्वप्रथम 'जीव' का निरूपण करने की अपेक्षा अजीव का निरूपण किया गया है। अजीव तत्त्व एक होते हुए भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से उसके विभिन्नरूपों की प्ररूपणा की गई है। रूपी अजीव द्रव्यतः स्कन्ध, स्कन्धदेश, प्रदेश और परमाणु पुद्गल के भेद से चार प्रकार का बता कर क्षेत्र और काल की अपेक्षा से उसकी प्ररूपणा की गई है। उसकी स्थिति और अन्तर की भी प्ररूपणा की गई है। तदनन्तर रूपी अजीव के वर्ण, गन्ध, 'जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए।' --उत्तरा. अ. 36, गा. 2 2. (क) 'जं जाणिऊण समणे, सम्मं जयइ संजमे / ' .---उत्तरा. अ. 36, गा. 1 (ख) "......"सोच्चा सहिऊण......"रमेज्जा संजमे मुणी।" -वही, गा. 249, 250 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org