SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 724
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौतीसवाँ अध्ययन : लेश्याध्ययन [613 15. खज्जूर-मुद्दियरसो खीररसो खण्ड-सक्कररसो वा। एत्तो वि अणन्तगुणो रसो उ सुक्काए नायव्यो / [15] खजूर और द्राक्षा (किशमिश) का रस, क्षीर का रस अथवा खांड या शक्कर का रस जितना मधुर होता है, उससे भी अनन्तगुणा अधिक मधुर शुक्ललेश्या का रस जानना चाहिए। . विवेचन-छहों लेश्याओ का रस-कृष्णलेश्या का कड़वा, नीललेश्या का तीखा (चरपरा), कापोतलेश्या का कसैला, तेजोलेश्या का खटमीठा, पद्मलेश्या का कुछ खट्टा-कुछ कसैला, और शुक्ललेश्या का मधुर रस होता है।' 4. गन्धद्वार 16, जह गोमडस्स गन्धो सुणगमडगस्स व जहा अहिमउस्स / एतो वि अणन्तगुणो लेसाणं अप्पसत्थाणं // [16] मरी हुई गाय, मृत कुत्ते और मरे हुए सांप की जैसी दुर्गन्ध होती है, उससे भी अनन्तगुणी अधिक दुर्गन्ध (कृष्णलेश्या आदि) तीनों अप्रशस्त लेश्याओं की होती है। 17. जह सुरहिकुसुमगन्धे गन्धवासाण पिस्समाणाणं / ___ एत्तो वि अणन्तगुणो पसत्थलेसाण तिण्हं पि॥ [17] सुगन्धित पुष्प और पीसे जा रहे सुवासित गन्धद्रव्यों की जैसी गन्ध होती है, उससे भी अनन्तगुणी अधिक सुगन्ध तीनों प्रशस्त (तेजो-पद्म-शुक्ल) लेश्याओं की है / विवेचन-अप्रशस्त और प्रशस्त लेश्याओं को गन्ध-प्रस्तुत गाथाओं में अप्रशस्त तीन लेश्याओं (कृष्ण, नील कापोत) की गन्ध दुर्गन्धित द्रव्यों से भी अनन्तगुणी अनिष्ट बताई गई है / यहाँ कापोत, नील और कृष्ण इस व्युत्क्रम से अप्रशस्त लेश्याओं में दुर्गन्ध का तारतम्य समझ लेना चाहिए / इसी तरह तीन प्रशस्त (तेजो-पद्म-शुक्ल) लेश्याओं की गन्ध सुगन्धित द्रव्यों से भी अनन्तगुणी अच्छी सुगन्ध बताई गई है। अतः इन तीनों प्रशस्त लेश्याओं में सुगन्ध का तारतम्य क्रमश: उत्तरोत्तर उत्कृष्टतर समझना चाहिए। 5. स्पर्शद्वार 18. जह करगयस्स फासो गोजिन्भाए व सागपत्ताणं / एत्तो वि अणन्तगुणो लेसाणं अप्पसत्थाणं // 18) करवत (करौत), गाय की जीभ और शाक नामक वनस्पति के पत्तों का स्पर्श जैसा कर्कश होता है; उससे भी अनन्तगुणा अधिक कर्कश स्पर्श तीनों अप्रशस्त लेश्याओं का होता है। 19. जह बूरस्स व फासो नवणीयस्स व सिरीसकूसमाणं / एत्तो वि अणन्तगुणो पसत्थलेसाण तिण्हं पि॥ 1. प्रज्ञापना पद 17 उ. 4 मू. 227 2. उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2 पत्र 319 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy