________________ चउतीसइमं अज्झयणं : चौतीसवाँ अध्ययन लेसज्झयणं : लेश्याध्ययन अध्ययन का उपक्रम 1. लेसज्झयणं पवक्खामि प्राणुपुन्धि जहक्कम / छण्हं पि कम्मलेसाणं अणुभावे सुणेह मे // [1] 'मैं आनुपूर्वी के क्रमानुसार लेश्या-अध्ययन का निरूपण करूंगा। (सर्वप्रथम) छहों कर्मस्थिति की विधायक लेश्याओं के अनुभावों (-रसविशेषों) के विषय में मुझ से सुनो।' 2. नामाई वण्ण-रस-गन्ध-फास-परिणाम-लक्खणं / ठाणं ठिई गई चाउं लेसाणं तु सुणेह मे // [2] इन लेश्याओं का (वर्णन) नाम, वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श, परिणाम, लक्षण, स्थान, स्थिति, गति और आयुष्य, (इन द्वारों के माध्यम से) मुझ से सुनो। विवेचन-लेश्या : स्वरूप और प्रकार-लेश्या प्रात्मा का परिणाम-अध्यवसाय विशेष है। जिस प्रकार काले प्रादि रंग वाले विभिन्न द्रव्यों के संयोग से स्फटिक वैसे ही रंग-रूप में परिणत हो जाता है उसी प्रकार आत्मा भी राग-द्वेष-कषायादि विभिन्न संयोगों से अथवा मन-वचन काया के योगों से वैसे ही रूप में परिणत हो जाता है। जिसके द्वारा कर्म के साथ प्रात्मा (जीव) श्लिष्ट हो जाए (चिपक जाए) उसे लेश्या कहा गया है। अर्थात्-वर्ण (रंग) के सम्बन्ध के श्लेष की तरह जो कर्मबन्ध की स्थिति बनाने वाली है, वही लेश्या है।' इसीलिए प्रथम गाथा में कहा गया है--- 'छण्हं पि कम्मलेसाणं'–प्रर्थात् 'कर्मस्थिति विधायिका लेश्यागों के अनुभाव (विशिष्ट प्रकार के रस को) / ........' द्वारसूत्र-द्वितीय गाथा में लेश्याओं का विविध पहलुओं से विश्लेषण करने हेतु नाम आदि / 11 द्वारों का उल्लेख किया गया है—(१) नामद्वार, (2) वर्णद्वार, (3) रसद्वार, (4) गन्धद्वार, (5) स्पर्शद्वार, (6) परिणामद्वार, (7) लक्षणद्वार, (8) स्थानद्वार, (6) स्थितिद्वार, (10) गतिद्वार और (11) ग्रायुष्यद्वार / आगे की गाथाओं में इन द्वारों पर क्रमश: विवेचन किया जाएगा। 1. (क) 'अध्यवसाये, प्रात्मनः परिणामविशेषे, अन्तःकरणवृत्तौ / ' --प्राचारांग 1 श्रु. अ.६, 3-5 तथा अ. 8 उ. 5 (ख) कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य प्रात्मनः / स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्याशब्दः प्रवर्तते // --प्रज्ञापना 17 पदवृत्ति। (ग) लिश्यते-श्लिष्यते कर्मणा सह प्रात्मा अनयेति लेश्या। कर्म ग्रन्थ 4 कर्म. (घ) "श्लेष इव वर्णबन्धस्य, कर्मबन्धस्थितिविधात्यः / " स्थानांग 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org