________________ 600] [उत्तराध्ययनसूत्र वेदनीय कर्म है / / 3 / / जो इस जीव को मदिरा के नशे की तरह मूढ (हेय-उपादेय के विवेक से विकल) कर देता है, वह मोहनीय कर्म है / इससे जीव पर-भाव को स्व-भाव मानकर उसके परिणमन से अपने में 'मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूँ,' इस प्रकार कल्पना करता रहता है / / 4 / / जिस कर्म के उदय से जोव एक गति से दूसरी गति में स्वेच्छा से न जा सके ; अर्थात-जिस प्रकार पैरों में पड़ी हुई बेड़ी का बन्धन जीव को वहीं एक ही स्थान में रोके रखता है, उसी प्रकार जिस कर्म के उदय से जीव चाहने पर भी दूसरी गति में न जा सके, जो विवक्षित गति में ही जीव को रोके रखे, उसका नाम आयु कर्म है / / 5 // जिस प्रकार चित्रकार अनेक प्रकार के छोटे-बड़े चित्र बनाता है, उसी प्रकार जो जीव के शरीर आदि की नाना प्रकार से रचना कर अर्थात्-शरीर को सुन्दर असुन्दर, छोटा-बड़ा आदि बनाए, उसका नाम नामकर्म है / / 6 / / जिस प्रकार कुभार मिट्टी को उच्च-नीच रूप में परिणत करता है, उसी प्रकार जो कर्म जीव को उच्च-नीच संस्कार युक्त कुल में उत्पन्न करता है, उसका नाम गोत्र कर्म है / / 7 / / जैसे राजा द्वारा भण्डारी को किसी को दान देने का आदेश दिया जाने पर भी भण्डारी उक्त व्यक्ति को दान देने में अन्तराय (विघ्न) रूप बन जाता है, उसी प्रकार जो कर्म जीव के लिए दानादि करने में विघ्नकारक बन जाता है, वह अन्तरायकर्म है / / 8 / / इस प्रकार संक्षेप में ये 8 कर्म हैं, विस्तार की अपेक्षा कर्म अनन्त हैं।' कर्मों का क्रम : अर्थापेक्ष-समस्त जीवों को जो भव-व्यथा हो रही है, वह ज्ञान-दर्शनावरणकर्म के उदय से जनित है / इस व्यथा को अनुभव करता हुआ भी जीव मोह से अभिभूत होने के कारण वैराग्य प्राप्त नहीं कर पाता / जब तक यह अविरत अवस्था में रहता है, तब तक देव, मनुष्य तिर्यञ्च एवं नरक आयु में वर्तमान रहता है / बिना नाम के जन्म होता नहीं, तथा जितने भी जन्म धारण करने वाले प्राणी हैं, वे सब गोत्र से बद्ध हैं। संसारी जीवों को जो सुख के लेश का अनुभव होता है, वह सब अन्तराय सहित है / इसलिए ये आठों कर्म परस्पर सापेक्ष हैं / पाठ कर्मों को उत्तर प्रकृतियां 4. नाणावरणं पंचविहं सुयं प्राभिणिबोहियं / ओहिनाणं तइयं मणनाणं च केवलं // [4] ज्ञानावरण कर्म पांच प्रकार का है-श्रुत (–ज्ञानावरण), आभिनिबोधिक (-ज्ञानावरण), अवधि (--ज्ञानावरण), मनो (मनःपर्याय) ज्ञान (--प्रावरण) और केवल (ज्ञानावरण)। 5. निद्दा तहेव पयला निद्दानिद्दा य पयलपयला य / तत्तो य थीणगिद्धी उ पंचमा होइ नायव्वा / / 6. चक्खुचक्खु-ओहिस्स दसणे केवले य प्रावरणे / एवं तु नवविगप्पं नायब्वं दंसणावरणं // 1. उत्तरा. प्रियदशिनीटीका भा. 4, पृ. 578, 2. वही, भा. 4, पृ. 577 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org