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________________ तेतीसवाँ अध्ययन : कर्मप्रकृति अध्ययनसार * प्रस्तुत अध्ययन का नाम कर्मप्रकृति (कम्मपयडी) है। * आत्मा के साथ राग-द्वेषादि के कारण कर्मपुदगल क्षीर-नीर की तरह एकीभूत हो जाते हैं / वे जब तक रहते हैं तब तक जीव संसार में विविध गतियों और योनियों में विविध प्रकार के शरीर धारण करके भ्रमण करते रहते हैं, नाना दुःख उठाते हैं, भयंकर से भयंकर यातनाएँ सहते हैं / इसलिए साधक को इन कर्मों को प्रात्मा से पृथक् करना आवश्यक है / यह तभी हो सकता है, जब कर्मों के स्वरूप को व्यक्ति जान ले, उनके बन्ध के कारणों को तथा उन्हें दूर करने का उपाय भी समझ ले / इसी उद्देश्य से कर्मों की मूल 8 प्रकृतियों के नाम तथा उनकी उत्तर प्रकृतियों एवं प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशबन्ध का परिज्ञान प्रस्तुत अध्ययन में कराया गया है। * सर्वप्रथम ज्ञानावरणीय कर्म के पांच भेद, दर्शनावरणीय के नौ भेद, वेदनीय के दो भेद, मोहनीय कर्म के सम्यक्त्वमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, और मिश्रमोहनीय आदि फिर कषाय, नोकषाय मोहनीय, मिलाकर 28 भेद, आयुष्यकर्म के चार, नामकर्म के मुख्य दो भेद-शुभ नाम-अशुभ नाम, गोत्र कर्म के दो भेद, एवं अन्तरायकर्म के पांच भेद बताए हैं / * तत्पश्चात्-कर्मबन्ध के चार प्रकारों का वर्णन एवं विश्लेषण किया गया है / * प्रत्येक कर्म की स्थिति भी संक्षेप में बताई गई है। * कर्मों के विपाक को अनुभाग, अनुभाव, फल, या रस कहते हैं। विपाक तीव्र-मन्द रूप से दो प्रकार का है / तीव्र परिणामों से बंधे हुए कर्म का विपाक तीन और मन्द परिणामों से बंधे हुए कर्मों का मन्द होता है / कर्मप्रायोग्य पुद्गल जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट होकर प्रात्मा के प्रदेशों के साथ चिपक जाते हैं। कर्म अनन्तप्रदेशी पुद्गल स्कन्ध होते हैं, वे आत्मा के असंख्य प्रदेशों के साथ एकीभूत हो जाते हैं / इस प्रकार प्रस्तुत 'अध्ययन' में कर्मविज्ञान का संक्षेप में निरूपण किया गया है। 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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