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________________ महत के लघभ्राता थे। राजीमती, जिनका ववाहिक सम्बन्ध अरिष्टनेमि मे तय हुना था किन्तु विवाह के कुछ समय पूर्व ही अरिष्टनेमि को वैराग्य हो गया और वे मुनि बन गये / अरिष्टनेमि के प्रवजित होने के पश्चात् रथनेमि गजीमती पर ग्रामक्त हो गये / किन्तु राजीमती का उपदेश श्रवण कर रथनेमि प्रवजित हए। एक बार पुनः रैवतक पर्वत पर वर्ग में प्रताडित साध्वी राजीमती को एक गुफा में वस्त्र सुखाने समय तान अवस्था में देखकर रथनेमि विचलित हो गये / राजीमती के उपदेश से वे पुनः संभले और अपने दुष्कृत्य पर पश्चात्ताप करते हैं। जैन साहित्य के अनुसार राजीमती उग्रसेन की पुत्री थी। विष्णु पुराण के अनुसार उग्रसेन की चार पुत्रियाँ थी--कंसा, कसवती, सुतनु और राष्ट्रपाली / 213 इस नामावली में राजीमती का नाम नहीं पाया है। यह बहुत कुछ सम्भव है--सुतन ही राजीमती का अपरनाम रहा हो। क्योंकि प्रस्तुत अध्ययन की ज्वी गाथा में रथनेमि गजीमती को 'सुतनु' नाम से सम्बोधित करते हैं / प्रस्तुत अध्ययन में अन्धकवृष्णि शब्द का प्रयोग हुआ है / जैन हरिवंश पुराण के अनुसार यदुवंश का उद्भव हरिवंश से हुआ है / यदुवंश में नरपति नाम का एक राजा था। उसके शूर और सुवीर ये दो पुत्र थ / सुवीर को मथुरा का राज्य दिया गया और शूर को शौयपुर का। अन्धकवृष्णि प्रादि शूर के पुत्र थे और भोजकवृष्णि आदि सुवीर के पुत्र थे। अन्धक-वृष्णि की प्रमुख रानी का नाम सुभद्रा था। उनके दस पुत्र हुए, जो निम्नलिखित हैं—(१) समुद्रविजय, (2) प्रक्षोभ्य, (3) स्तमित सागर, (4) हिमवान्, (5) विजय, (6) अचल, (7) धारण, (8) पूरण, (9) अभिचन्द्र, (10) वसूदेव / ये दसों पुत्र दशाह के नाम स विश्रुत है / अन्धकवृष्णि को (1) कुन्ती, (2) मद्री ये दो पुत्रियाँ थीं। भोजकवष्णि की मुख्य पत्नी पद्मावती थी। उसके उग्रसेन, महासन और देवसेन ये तीन पुत्र हुए।२१४ उत्तरपुराण में देवसेन के स्थान पर महाद्य तिसेन नाम अाया है।५५ उनके एक पुत्री भी थी, जिसका नाम गांधारी था। अन्धककुल के नेता समुद्रविजय के अरिष्टनेमि, रथनमि, सत्यनेमि और दृढ़नेमि ये चार पुत्र थे। वासुदेव श्रीकृष्ण आदि अंधकवष्णिकूल के नेता बसूदेव के पुत्र थे। वैदिक-साहित्य में इनकी वंशावली पृथक रूप से मिलती हैं / 16 इस अध्ययन में भोज, अन्धक और वृष्णि इन तीन कुलों का उल्लेख हुआ है / भोजराज शब्द राजीमती के पिता समुद्रविजय जी के लिए प्रयुक्त हमा है। वासूदेव श्रीकृष्ण का अरिष्टनेमि के साथ अत्यन्त निकट का सम्बन्ध था। वे अरिष्टनेमि के चचेरे भाई थे। उन्होंने राजीमती को दीक्षा ग्रहण करते समय जो आशीर्वाद दिया था वह ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है और साथ ही श्रीकृष्ण के हृदय की धार्मिक भावना का भी प्रतीक है वह आशीर्वाद इस प्रकार से है-संसारसागरं घोरं, तर कम्ने ! लह लहं।" हे कन्ये ! तु घोर संसार-सागर हो शीघ्रता से पार कर / 17 इस अध्ययन की सबसे बड़ी महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि पथभ्रष्ट पुरुष को नारी सही मार्ग पर 213. विष्णुपुराण 4114121 214. हरिबंशपुराण 1816-16 प्राचार्य जिनसेन 212. उत्तरघुराण 70 / 10 216. (क) देखिए—लेखक का भगवान अरिष्टनेमि और कर्मयोगी श्रीकृष्ण : एक अनुशीलन (ख) एशिएण्ट इण्डियन हिस्टोरिकल ट्रेडीशन, पृष्ठ 104-107 पारजीटर 217. उत्तराध्ययन 22-31 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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