________________ "प्रत्तना ब कतं पापं, अत्तज अत्तसम्भवं / अभिमन्थति दुम्मेध, वजिरं वरममयं मणि // " "अत्तता व कतं पापं, अतना संकिलिस्सति / अत्तना अकतं पापं, अत्तना व विसुज्झति / / (धम्मपद 1214,5,9) "न तं अरी कण्ठछेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा / से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्त, पच्छाणुतावेण दयाविहूणे // " (उत्तर. 20 // 48) तुलना कीजिए दिसो दिसं य त कयिरा, वेरी वा पन वैरिनं / मिच्छापणिहितं चित्त, पापियो नं ततो करे // (धम्मपद 3 / 10) दुविहं खदेऊण य पुण्णपावं, निरंगणे सव्वो विप्पमुक्के / तरित्ता समुद्द व महाभवोघं, समुद्दपाले अपुणागमं गए // (उत्तरा. 2014) तुलना कीजिए यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्ण कर्तारमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम् / तदा विद्वान् पुण्यपापे विध्य निरञ्जनं परमं साम्य मुपैति / / (मुण्डकोपनिषद् 3 / 113) इस प्रकार प्रस्तुन अध्ययन में चिन्तन की विपुल सामग्री है। इस में यह भी प्रदर्शित किया गया है कि द्रव्यलिङ्ग को धारण करने मात्र से लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होती। यह भाव गाथा इकतालीस से पचास तक में प्रदणित किये गये हैं। उन की तुलना सत्तनिपात-महावग पवज्जा सूत्त से सहज रूप से की जा सकती हैं। समुद्रयात्रा इक्कीसव अध्ययन में समुद्रपाल का वर्णन है। इसलिये वह "समुद्रपालीय" नाम से विश्रुत है। इस अध्ययन में समुद्रयात्रा का महत्त्वपूर्ण उल्लेख है। उस युग में भारत के साहसी व्यापारी व्यापार हेतु दूर-दूर तक जाते थे। अतीत काल से ही नौकानों के द्वारा व्यापार करने की परम्परा भारत में थी। ऋग्वेद में इस प्रकार की नौकायों का वर्णन है, जो समुद्र में चलती थीं। नाविकों के द्वारा समुद्र में बहुत दूर जाने पर मार्ग विस्मृत हो जाने पर वे पूपा की मंस्तुति करते थे जिस से सुरक्षित लौट सकें। बौद्ध जातकसाहित्य में ऐसे जहाजों का वर्णन है जिन में पांच सौ व्यापारी एक माथ यात्रा करते थे।५८ विनय-पिटक में 'पूर्ण' नाम के एक व्यापारी का उल्लेख है जिस ने छ: बार समुद्रयात्रा की थी। संयुक्तनिकाय अंगुत्तरनिकाय?.. में वर्णन है कि छ:-छ: मास तक नौकानों द्वारा समुद्रयात्रा की जाती थी। दोधनिकाय२०' में यह भी वर्णन है मि समुद्रयात्रा करने वाले व्यापारी अपने साथ कुछ पक्षी रखते थे / जब जहाज ममुद्र में बहुत दूर पहुँच जाता और आस-पास में कहीं पर भी भूमि दिखाई नहीं देती तब उन पक्षियों को 197. ऋग्वेद 2247, 14863, 15612, 211613, 2048 // 3, 7 / 883-4 198. पण्डार जातक 2 / 128, 5175 199. संयुक्तनिकाय 21115, 151 200. अंगुत्तरनिकाय 4 / 27 201. दीघनिकाय 12222 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org