________________ होता है , वह निग्रंथ है। निग्रन्थ की व्याख्या इस प्रकार की गई है जो राग-द्वेष से रहित होने के कारण एकाकी है, बुद्ध है, आश्रव-रहित है, संयत है, समितियों से युक्त है, सुसमाहित है, आत्मवाद का ज्ञाता है, विज्ञ है, बाह्य और ग्राभ्यन्तर दोनों प्रकार के स्रोत जिसके छिन्न हो चुके हैं, जो पूजा-सत्कार, लाभ का अर्थी (इच्छुक) नहीं है, केवल धर्मार्थी है, धर्मविद् है, मोक्षमार्ग की ओर चल पड़ा है, साम्यभाव का माचरण करता है, दान्त है, वन्धनमुक्त होने के योग्य है, वह निग्रन्थ है। 183 प्राचार्य उमास्वाति ने लिखा है-जो कर्मग्रन्थि के विजय के लिए प्रयास करता है, वह निर्ग्रन्थ है। 164 प्रस्तुत अध्ययन में महानिर्ग्रन्थ अनाथ मुनि का वर्णन होने से इसका नाम 'महानिन्थीय' रखा गया है। सम्राट् श्रणिक ने मुनि के दिव्य और भव्य रूप को निहार कर प्रश्न किया-यह महामुनि कौन हैं ? और क्यों श्रमण बने है ? मुनि ने उत्तर में अपने आपको 'अनाथ' बताया। अनाथ शब्द सुनकर राजा श्रेणिक अत्यन्त विस्मित हुआ। इस रूप-लावण्य के धनी का अनाथ होना उसे समझ में नहीं आया। मुनि ने अनाथ शब्द की विस्तार से व्याख्या प्रस्तुत को। राजा ने पहली बार सनाथ और अनाथ का रहस्य समझा। उसके ज्ञान-चक्षु मुल गये / उसने निवेदन किया-मैं आप से धर्म का अनुशासन चाहता हूँ। राजा श्रेणिक को मुनि ने सम्यक्त्व-दीक्षा प्रदान की। प्रस्तुत आगम में मुनि के नाम का उल्लेख नहीं है पर प्रसंग से यही नाम फलित होता है। दीघनिकाय में 'मण्डीकुक्षि' के नाम पर 'मद्दकुच्छि' यह नाम दिया है। "5 डा. राधाकुमुद बनर्जी ने मण्डीकुक्षि उद्यान में राजा श्रेणिक के धर्मानुरक्त होने की बात लिखी है। साथ ही प्रस्तुत अध्ययन की 58 वी गाथा में 'अणगारसिंह' शब्द व्यवहृत हुआ है। उस शब्द के आधार से वे अणगारसिंह से भगवान महावीर को ग्रहण करते हैं पर उनका यह मानना सत्य-तथ्य से परे है / क्योंकि प्रस्तुत अध्ययन में मुनि ने अपना परिचय देते हुए अपने को कौशाम्बी का निवासी बताया है। सम्राट श्रेणिक का परिचय हमने अन्य प्रागमों की प्रस्तावना में विस्तार से दिया है, इसलिए यहाँ विस्तृत रूप से उसकी चर्चा नहीं की जा रही है। प्रस्तुत अध्ययन में पाई हुई कुछ गाथाओं की तुलना धम्मपद, गीता और मुण्डकोपनिषद् आदि से की जा सकती है "अय्पा नई वेयरणी, अप्पा मे कडसामली। अप्पा कामदुहा धेण, अप्पा मे नन्दण दणं // (उत्तरा. 20036) "अप्पा कत्ता विकता य, दहाण य सहाण य / अप्पा मित्तममित्त च, दुप्पट्ठियसुपठियो / (उत्तरा. 20137) तुलना कीजिए "अत्ता हि अत्तनो नाथो, को हि नाथो परो सिया / अत्तना व सुदन्तेन, नाथं लभति दुल्लभं / ' 192. निग्गंथाणं ति विप्पमुक्कत्ता निरूविज्जति / दशवकालिक, अगस्त्यसिंह चूणि पृष्ठ 59 193. सूत्रकृतांग 1 / 16 / 6 194. ग्रन्थ : कर्माष्टविध, मिथ्यात्वाविरतिदृष्टयोगाश्च / तज्जयहेतोरशठं, संयतते यः म निर्ग्रन्थः // ---प्रशमरतिप्रकरण, श्लोक 142 .195. दीघनिकाय भाग 2, पृ. 91 196. हिन्दू सिविलाइजेशन, प्र. 187 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org