________________ उनतीसवां अध्ययन : सम्यक्त्वपराक्रम] [497 पूर्व दिन और रात्रि में काल को प्रतिलेखना आवश्यक बताई गई है। प्राचारांगसूत्र में मुनि को 'कालज्ञ' होना अनिवार्य बताया गया है।" 16. प्रायश्चित्तकरण से लाभ १७-पायच्छित्तकरणेणं भन्ते ! जोवे कि जणयइ ? पायच्छित्तकरणेणं पावकम्मविसोहि जणयइ, निरइयारे यावि भवइ / सम्मं च णं पायच्छित्तं पडिवज्जमाणे मग्गं च मग्गफलं च विसोहेइ / प्रायारं च आयारफलं च आराहेइ / [17 प्र.] भन्ते ! प्रायश्चित्त करने से जीव को क्या लाभ होता है ? [उ.] प्रायश्चित्त करने से जीव पापकर्मों की विशुद्धि करता है और उसके (वतादि) निरतिचार हो जाते हैं / सम्यक् प्रकार से प्रायश्चित्त स्वीकार करने वाला साधक मार्ग और मार्गफल को निर्मल करता है / प्राचार और प्राचारफल की आराधना करता है / विवेचन–प्रायश्चित्त : लक्षण-प्राय अर्थात् पाप की, चित्त यानी विशुद्धि को प्रायश्चित्त कहते हैं। मार्ग और मार्गफल के विभिन्न अर्थ-मार्ग (1) मुक्तिमार्ग, (2) सम्यक्त्व और (3) सम्यक्त्व एवं ज्ञान, मार्गफल-ज्ञान / प्रस्तुत में मार्ग का अर्थ 'सम्यक्त्व' ही उचित है, क्योंकि चारित्र (प्राचार और प्राचारफल) की आराधना इसी सूत्र में आगे बताई है। इसीलिए दर्शन मार्ग है और उसकी विशुद्धि से ज्ञान विशुद्ध होता है, इसलिए वह (ज्ञान) मार्गफल है / / निष्कर्ष यह है कि प्रायश्चित्त से क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की शुद्धि होती है। 17. क्षमापना से लाभ १८-खमावणयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? खमावणयाए णं पल्हायणभावं जणयइ / पल्हायणभावमुवगए य सव्वपाण-भूय-जीवसत्तेसु मित्तीभावमुप्पाएइ / मित्तोभावमुवगए यावि जोवे भावविसोहि काऊण निम्भए भवइ // 1. (क) बृहद्वत्ति, पत्र 581 (ख) 'अन्न अन्नकाले, पानं पानकाले, वत्थं वत्थकाले, लेण लेणकाले, सयम सयणकाले।' -सूत्रकृतांग. 211115 (ग) काले कालं समायरे / ' --52 / 4 (घ) उत्तरा. अ. 26, गा. 46 : पडिक्कमित्त कालस्त, कालं तु पडिलेहए। (ङ) 'कालण्णू' -प्राचारांग 1 श्रु. अ.८, उ. 3 2. 'प्राय: पापं विजानीयात् चित्तं तस्य विशोधनम् / ' –बहवत्ति, पत्र 582 3. मार्गः--इह ज्ञानप्राप्तिहेतुः सम्यक्त्वम्, यद्वा मार्ग चारित्रप्राप्तिनिबन्धतया दर्शनज्ञानाख्यम, अथवा मार्ग च मुक्तिमार्ग क्षायोपशमिकदर्शनादि तत्फलं च ज्ञानम / -बहद्वत्ति, पत्र 583 Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only