________________ 496] [उत्तराध्ययनसूत्र 14. स्तव-स्तुति-मंगल से लाभ १५-थव-थुइमंगलेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? थव-थइमंगलेणं नाण-दसण-चरित्त-बोहिलाभंजणयइ / नाण-दसण-चरित्तबोहिलाभसंपन्न य णं जीवे अन्तकिरियं कप्पविमाणोववत्तिगं आराहणं आराहेइ / [15 प्र.] भगवन् ! स्तव-स्तुति-मंगल से जीव क्या प्राप्त करता है ? [उ.] स्तव-स्तुति-मंगल से जीव को ज्ञान-दर्शन-चारित्र-स्वरूप बोधिलाभ प्राप्त होता है / ज्ञान-चारित्ररूप बोधि के लाभ से सम्पन्न जीव अन्तक्रिया (मुक्ति) के योग्य, अथवा (कल्प) वैमानिक देवों में उत्पन्न होने के योग्य आराधना करता है। विवेचन--स्तव और स्तुति में अन्तर—यद्यपि स्तव और स्तुति, दोनों का अर्थ भक्ति-बहुमानपूर्वक गुणोत्कीर्तन करना है, तथापि साहित्य की विशिष्ट परम्परानुसार स्तव का अर्थ एक, दो या तीन, श्लोक वाला गुणोत्कीर्तन है और स्तुति का अर्थ है-तीन से अधिक अथवा सात श्लोक वाला गुणोत्कीर्तन, अथवा जो शक्रस्तवरूप हो, वह स्तव है और जो इससे ऊर्ध्वमुखी हो कर कथन रूप हो, वह स्तुति है। स्तव और स्तुति दोनों द्रव्यमंगलरूप नहीं, अपितु भावमंगल रूप हैं। ज्ञान-दर्शन-चारित्रबोधिलाभ का तात्पर्य मतिश्रुतादि ज्ञान, क्षायिक सम्यक्त्वरूप दर्शन, विरतिरूप चारित्र, यों ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप बोधिलाभ अर्थात्-जिनप्ररूपित धर्मवोध की प्राप्ति / 15. कालप्रतिलेखना से उपलब्धि १६.----कालपडिलेहणयाए णं भन्ते ! जीवे कि जणयइ ? कालपडिलेहणयाए णं नाणावरणिज्जं कम्मं खवेइ / [16 प्र.] भंते ! काल की प्रतिलेखना से जीव को क्या उपलब्धि होती है ? [उ.] काल की प्रतिलेखना से जीव ज्ञानावरणीयकर्म का क्षय करता है। विवेचन-कालप्रतिलेखना : तात्पर्य और महत्त्व प्रादोषिक, प्राभातिक आदि रूप काल की प्रतिलेखना अर्थात् शास्त्रोक्तविधि से स्वाध्याय, ध्यान, शयन, जागरण, प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण, भिक्षाचर्या, आदि धर्मक्रिया के लिए उपयुक्त समय की सावधानी या ध्यान रखना। __ साधक के लिए काल का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है। सुत्रकृतांग में बताया गया है कि प्रशन, पान, वस्त्र, लयन, शयन आदि के काल में प्रशनादि क्रियाएँ करनी चाहिए। दशवैकालिक सूत्र में सभी कार्य समय पर करने का विधान है। सामाचारी अध्ययन मुनि को स्वाध्याय आदि के 1. बृहद्वत्ति, पत्र 581 2. वही, पत्र 581 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org