________________ अट्ठाईसवाँ अध्ययन : मोक्षमार्गगति] [475 दशविधरुचिरूप सम्यक्त्व के दस प्रकार 16. निसग्गुवएसरुई आणारुई सुत्त-बीयरुइमेव / अभिगम-वित्थाररुई किरया-संखेव-धम्मरुई // [16] (सम्यक्त्व-सम्यग्दर्शन के दस प्रकार हैं-) निसर्गरुचि, उपदेशरुचि, आज्ञारुचि, सूत्ररुचि, बीजरुचि, अभिगमरुचि, विस्ताररुचि, क्रियारुचि, संक्षेपरुचि और धर्मरुचि / 27. भूयत्थेणाहिगया जीवाजीवा य पुग्णपावं च / सहसम्मुइयासवसंवरो य रोएइ उ निसग्गो॥ [17] (दूसरे के उपदेश के विना ही) अपनी ही मति से जीव, अजीव, पुण्य, पाप, पाश्रव और संवर आदि तत्त्वों को यथार्थ रूप से ज्ञात कर श्रद्धा करना निसर्गचि सम्यक्त्व है। 18. जो जिणदिठे भावे चउब्धिहे सद्दहाइ सयमेव / एमेव नऽन्नह ति य निसग्गरुइ त्ति नायव्यो॥ [18] जो जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट (अथवा दृष्ट) (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन) चार प्रकारों से (अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव, इन चार प्रकारों से) विशिष्ट भावों (--पदार्थों) के प्रति स्वयमेव (दूसरों के उपदेश के विना), यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं; ऐसी (स्वतःस्फूर्त) श्रद्धा (रुचि) रखता है, उसे निसर्गरुचि वाला जानना चाहिए। -19. एए चेव उ भावे उवइढे जो परेण सद्दहई / छउमत्थेण जिणेण व उवएसरुइ त्ति नायवो। [16] जो अन्य-छद्मस्थ अथवा जिनेन्द्र के द्वारा उपदेश प्राप्त कर, इन्हीं जीवादि भावों (पदार्थों) पर श्रद्धा रखता है, उसे उपदेशरुचि सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। 20. रागो दोसो मोहो अन्नाणं जस्स अवगयं होइ। ____ आणाए रोयंतो सो खलु आणारुई नाम // _ [20] जिस (महापुरुष–प्राप्तपुरुष) के राग, द्वेष, मोह और अज्ञान दूर हो गए हैं, उनको अाज्ञा से जो तत्त्वों पर रुचि रखता है, वह आज्ञारुचि है / / -~21 जो सुत्तमहिज्जन्तो सुएण ओगाहई उ सम्मत्तं / अंगेण बाहिरेण व सो सुत्तरुइ ति नायव्वो // [21] अंग (-प्रविष्ट) अथवा अंगबाह्य श्रुत में अवगाहन करता हुआ जो सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, उसे सूत्ररुचि जानना चाहिए। ~22. एगेण अणेगाई पयाइं जो पसरई उ सम्मत्तं / उदए व्व तेल्लबिन्दू सो बीयरुइ ति नायव्वो॥ [22] जैसे जल में तेल की बूद फैल जाती है, वैसे ही जो सम्यक्त्व एक पद (तत्त्वबोध) से अनेक पदों में फैलता है, उसे बीजरुचि समझना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org