________________ अट्ठाईसवाँ अध्ययन : मोक्षमार्गगति] [465 मोक्षमार्ग प्रस्तुत अध्ययन में ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप इन चारों को मोक्षमार्ग बताया गया है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में सम्यग्दर्शन, सम्यग्नान और सम्यक्चारित्र, इन तीन को हो मोक्षमार्ग बताया है। इसका कारण यह है कि यद्यपि तप चारित्र का ही एक अंग है, तथापि कर्मक्षय करने का विशिष्ट साधन होने के कारण तप को यहाँ पृथक् स्थान दिया गया है। अतः यह केवल अपेक्षाभेद है। विभिन्न दर्शनों और धर्मों ने अन्यान्य प्रकार से मोक्षमार्ग बताया है, उनके निषेध के लिए यहाँ तथ्य और जिनभाषित दो विशेषण प्रयुक्त किये गए हैं।' मोक्ष का फलितार्थ-बन्ध और बन्ध के कारणों के प्रभाव से तथा पूर्ववद्ध कर्मों के क्षय से होने वाला परिपूर्ण अात्मिक विकास मोक्ष है, अर्थात—ज्ञान और वीतरागभाव की पराकाष्ठा ही मोक्ष है। सम्यग्ज्ञानादि का स्वरूप-नय और प्रमाण से होने वाला जोवादि पदार्थों का यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान है / जिस गुण अर्थात् शक्ति के विकास से तत्त्व (सत्य) की प्रतीति हो, जिसमें हेय, ज्ञेय और उपादेय के यथार्थ विवेक की अभिरुचि हो, वह सम्यग्दर्शन है / सम्यग्ज्ञानपूर्वक काषायिक भाव यानी राग-द्वेष और योग की निवृत्ति से होने वाला स्वरूपरमण सम्यक्चारित्र है। ज्ञान और उसके प्रकार 4. तत्थ पंचविहं नाणं सुयं आभिनिबोहियं / ओहीनाणं तइयं मणनाणं च केवलं / / [4] उक्त चारों में से ज्ञान पांच प्रकार का है--श्रुतज्ञान, प्राभिनिबोधिक (मतिज्ञान), तीसरा अवधिज्ञान एवं मनोज्ञान (मनःपर्यायज्ञान) और केवलज्ञान / 5. एयं पंचविहं नाणं दव्वाण य गुणाण य / पज्जयाणं च सन्वेसि नाणं नाणोहि देसियं // [5] ज्ञानी पुरुषों ने बताया है कि यह पांच प्रकार का ज्ञान सर्व द्रव्यों, गुणों और पर्यायों का अवबोधक-जानने वाला है। विवेचन-पांच ज्ञानों के क्रम में अन्तर- नन्दीसूत्र प्रादि में मतिज्ञान को प्रथम और श्रुतज्ञान को दूसरा कहा गया है, किन्तु यहाँ श्रुतज्ञान को प्रथम और मतिज्ञान को बाद में कहा है। उसका कारण वत्तिकार ने यह बताया है कि शेष सभी ज्ञानों के स्वरूप का ज्ञान प्रायः श्रतज्ञान से ही हो सकता है, इसलिए श्रुतज्ञान को मुख्यता बताने के लिए इसे प्रथम कहा है। मति और श्रुत दोनों ज्ञान अन्योन्याश्रित हैं। अथवा मति और श्रुत लब्धि की अपेक्षा साथ ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए इन में पहले पीछे का प्रश्न ही नहीं उठता। __ मतिज्ञान के पर्यायवाची शब्द---अनुयोगद्वार में 'पाभिनिबोधिक' शब्द का प्रयोग हुआ है, किन्तु नन्दीसूत्र में ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा को इसका 1. (क) बहत्ति , पत्र 556 : इह च चारित्रभेदत्वेऽपि तपसः पृथगुपादानमस्यैव कर्मक्षपणं प्रत्यसाधारणहेतुत्वमुप दयितुम् / तथा च वक्ष्यति–तवसा "विसुज्नइ / " (ख) तत्त्वार्थसूत्र 111 2. तत्त्वार्थसूत्र-बन्धहेत्वभावनिर्जराभ्याम् / --तत्त्वार्थ. 1012, 111 पं. सुखलालजीकृत विवेचन ----पू. 1-2 3. बृहद्वृत्ति, पत्र 557 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org