________________ छन्वीसवाँ अध्ययन : अध्ययन-सार] * तत्पश्चात् 13 से 16 तक 4 गाथाओं में पौरुषी का ज्ञान बताया है। * फिर रात्रि की औगिक चर्या का वर्णन है। पूर्ववत् रात्रि के 4 भाग करके प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में निद्रा और चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय / * तत्पश्चात् प्रतिलेखना की विधि एवं उसके दोषों से रक्षा का प्रतिपादन करते हुए मुखवस्त्रिका रजोहरण, वस्त्र आदि के प्रतिलेखन का विधान है। तदनन्तर साधु के लिए तृतीय प्रहर में भिक्षाटन और पाहार सेवन का विशेष विधान है। उस सन्दर्भ में छह कारणों से आहार ग्रहण करने और छह कारणों से आहार छोड़ने का उल्लेख है। फिर चतुर्थ पौरुषी में वस्त्र-पात्रादि का प्रतिलेखन करके बांधकर व्यवस्थित रखने और तदनन्तर सान्ध्य प्रतिक्रमण करने का विधान है। * पुनः रात्रिक कृत्य एवं पूर्ववत् स्वाध्याय, ध्यान एवं प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग आदि का विधिवत् विधान है। कुल मिला कर यह साधु-सामाचारी शारीरिक मानसिक शान्ति, व्यवस्था एवं स्वस्थता के लिए अत्यन्त लाभदायक है। विशेष लाभ-(१-२) आवश्यकी और नैधिकी से निष्प्रयोजन गमनागमन पर नियन्त्रण का अभ्यास होता है, (3-4) आपृच्छा और प्रतिपृच्छा से श्रमशील और दूसरों के लिए उपयोगी बनने की भावना पनपती है, (5) इच्छाकार से दूसरों के अनुग्रह का सहर्ष स्वीकार तथा स्वच्छन्दता में प्रतिरोध आता है, (6) मिथ्याकार से पापों के प्रति जागति बढ़ती है, (7) तथाकार से हठाग्रहवृत्ति छूटती है और गम्भीरता एवं विचारशीलता पनपती है, (8) छन्दना से अतिथिसत्कार की प्रवत्ति बढ़ती है, (6) अभ्युत्थान से गुरुजनभक्ति एवं गुरुता बढ़ती है एवं (10) उपसम्पदा से परस्पर ज्ञानादि के आदान-प्रदान से उनकी वद्धि होती है। 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org