________________ 424] [उत्तराध्ययनसूत्र रखना निर्ग्रन्थ मुनि का प्रमुख प्राचार है / उसी का जयघोष मुनि ने यहाँ परिचय दिया है / वे भिक्षा के लिए याज्ञिक द्वारा इन्कार करने पर भी न रुष्ट हुए, न प्रसन्न / ' जयघोष मुनि द्वारा विमोक्षणार्थ उत्तर 10. नऽन्नद्रं पाणहेउं वा न वि निन्वाहणाय वा। तेसि विमोक्खणट्टाए इमं वयणमब्बवी // [10] न अन्न के लिए, न जल के लिए और न जीवननिर्वाह के लिए, किन्तु उस विप्र के विमोक्षण (मिथ्याज्ञान-दर्शन से मुक्त करने) हेतु मुनि ने यह वचन कहा 11. न वि जाणासि वेयमुहं न वि जन्नाण जं मुहं / नक्खत्ताण मुहं जं च जं च धम्माण वा मुहं / [11] (जयघोष मुनि-) तुम वेद के मुख को नहीं जानते और न यज्ञों का जो मख है, नक्षत्रों का जो मुख है और धर्मों का जो मुख है, उसे ही जानते हो। 12. जे समत्था समुद्धत्तुं परं अप्पाणमेव य / न ते तुमं वियाणासि अह जाणासि तो भण / / [12] अपने और दूसरों के उद्धार करने में जो समर्थ हैं, उन्हें भी तुम नहीं जानते / यदि जानते हो तो बतायो। विवेचन-धर्मोपदेश किसलिए ?...-प्रस्तुत दसवीं गाथा में साधु को धर्मोपदेश या प्रबोध देने की नीति का रहस्योद्घाटन किया गया है। प्राचारांगसूत्र में बताया गया है कि साधु को इस दृष्टि से धर्मोपदेश नहीं देना चाहिए कि मेरे उपदेश से प्रसन्न होकर ये मुझे अन्न-पानी देंगे / न वस्त्र-पात्रादि के लिए वह धर्म-कथन करता है। किन्तु संसार से निस्तार के लिए अथवा कर्मनिर्जरा के लिए धमोंपदेश देना चाहिए। विमोक्खणढाए (1) कर्मबन्धन से मुक्ति प्राप्त कराने हेतु अथवा (2) अजान और मिथ्यात्व से मुक्त करने हेतु / 'मुख' शब्द के विभिन्न अर्थ-प्रस्तुत 11 वी गाथा में मुख (मुंह) शब्द का चार स्थानों पर प्रयोग हुआ है। इसमें से प्रथम और तृतीय चरण में प्रयुक्त 'मुख' शब्द का अर्थ-'प्रधान', एवं द्वितीय और चतुर्थ चरण में प्रयुक्त 'मुख' शब्द का अर्थ-'उपाय' है।४ 1. (क) उत्तरा. अ. 19, गा, 9 (ख) दशवं. अ. 22, गा. 27-28 2. (क) एवं ज्ञात्वा नाऽब्रवीत-येनाऽहं एभ्य उपदेशं ददामि, एते प्रसन्ना मह्य सम्यक अन्नपानं ददति---इति बुद्धया।" .. "अपि च वस्त्रपात्रादिकानां निर्वाह एभ्यो मम भविष्यति तेन हेतुना नाऽब्रवीदिति भावः / (ख) से भिक्खू धम्म किट्टमाणे.....। 3. (क) विमोक्षणार्थ-कर्मबन्धनात् मुक्तिकरणार्थं / -उत्तरा. वृत्ति, अभि. रा. को. भा. 4, पृ. 1419 (ख) उत्तरा. (गुजराती भाषान्तर भावनगर) भा. 2, पत्र 198 4. बृहद्वृत्ति, पत्र 524 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org