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________________ पच्चीसवां अध्ययन : यज्ञीय [423 8. जे समत्था समुद्धत्तु परं प्रप्पाणमेव य / तेसि अन्नमिणं देयं भो भिक्खू ! सबकामियं // [8] जो अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं, उन्हीं को हे भिक्षु ! यह सर्वकामिक (समस्त इष्ट वस्तुओं से युक्त) अन्न देने योग्य है। 9. सो एवं तत्थ पडिसिद्धो जायगेण महामुणी। न वि रुट्ठो न वि तुट्ठो उत्तमट्ठ-गवेसओ // [8] वहाँ (यज्ञपाटक में) इस प्रकार याजक (विजयघोष) के द्वारा इन्कार किये जाने पर वह महामुनि (जयघोष) न तो रुष्ट हुए और न तुष्ट (प्रसन्न) हुए। (क्योंकि वह) उत्तम अर्थ (मोक्ष) के गवेषक (-अभिलाषी) थे। विवेचन--वित्र और द्विज में अन्तर-यद्यपि 'विप्र' और 'द्विज' दोनों सामान्यतया ब्राह्मण अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, परन्तु बृहद्वत्तिकार ने इन दोनों के अन्तर को स्पष्ट किया है—ब्राह्मण जाति में उत्पन्न होने वाले 'विप्र' कहलाते हैं और जो व्यक्ति योग्य वय प्राप्त होने पर यज्ञोपवीत आदि से संस्कारित होते हैं, उन्हें संस्कार की अपेक्षा से 'द्विज' (दूसरा जन्म ग्रहण करने वाले) कहा जाता है / प्राचीन काल में जो वेदपाठी होते थे, वे विप्र तथा जो वेदज्ञाता होने के साथ-साथ यज्ञ करते-कराते थे, वे द्विज कहलाते थे।" जोइसंगविऊ—यद्यपि ज्योतिषशास्त्र वेद का एक अंग है, वह 'वेदवित्' शब्द के प्रयोग से गहीत हो जाता है, तथापि यहाँ ज्योतिषशास्त्र को पथक अंकित किया गया है. वह इसकी प्रधानता को बताने के लिए है। अर्थात् वेदवेत्ता होते हए भी जो ज्योतिष रूप अंग का विशेष रूप से ज्ञाता हो। चूंकि ज्योतिष कालविधायक शास्त्र है, वह वेद का नेत्र है तथा वेद के मुख्य विहित यज्ञों से ज्योतिष का विशिष्ट सम्बन्ध है, फलतः ज्योतिष का ज्ञाता ही यज्ञ का ज्ञाता है, इस महत्त्व के कारण 'ज्योतिषांगवित्' शब्द का पृथक् प्रयोग किया गया है / सम्वकामियं--(१) जिसमें कामिक अर्थात् अभिलषणोय सर्व वस्तुएँ हैं, (2) सर्व (षड्) रससिद्ध अथवा (3) सबको अभीष्ट / / समुद्धत्तु-समुद्धार करने-तारने में / 3 निर्ग्रन्थ मुनि का समत्वयुक्त आचार-उत्तराध्ययन के 19 वें अध्ययन की गाथा 60 के अनुसार लाभालाभ आदि में ही नहीं, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, मानापमान में भी समभाव 1. (क) विप्रा जातितः, ये द्विजाः-संस्कारापेक्षया द्वितीयजन्मानः। (ख) 'संस्काराद् द्विज उच्यते।' (ग) 'वेदपाठी भवेद विप्रः। (घ) 'जे य वेयविऊ विप्पा, जन्नद्रा य जे दिया।' उत्तरा. अ. 25, गा. 7 2. (क) “शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दसा गतिः / ज्योतिषश्च षडंगानि........................ ..' (ख) 'यद्यपि ज्योतिःशास्त्रं वेदस्यांगमेवास्ति 'वेदविद' इत्युक्ते अागतम, तथापि अत्र ज्योतिःशास्त्रस्य पृथगुपादानं प्राधान्यख्यापनार्थम् / ' --उत्तरा. वृत्ति, अ. रा. कोष भा. 4, पृ. 1419 3. सर्वकामिक, षडरससिद्ध, सर्वाभिलषितम् / -उत्तरा. वृत्ति, अ. रा. कोष भा. 4, पृ. 1419 -उत्तरा. (गु. भाषान्तर), पत्र 197 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003498
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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